गीता अमृत - 94



हमारी भूल



आये दिन सुननें में आता है - अमुक ब्यक्ति करोणोंके आभूषण अमुक मंदिर में भेट के रूप में दिया ।

क्या मंदिर की मूर्ती जो किसी फकीर की हो सकती है , किसी देवता की हो सकती है , साकार रूपों में अवतरित हुए प्रभु की हो सकती है , वह आभूषणों को प्राप्त करके उस ब्यक्ति के द्वारा किये गए गुनाहों को माफ़ कर सकती है ?



क्या पीर , फकीर , देवता एवं परमात्मा मनुष्य जैसे स्वभाव वाले होते हैं ?
मनुष्य पल में अपना रंग बदलता है - अभी जो हमारा मित्र है वह अगले पल शत्रु बन जाता है और शत्रु मित्र बन जाता है - अर्थात हम अपनें मन के गुलाम है - मन की गति हमें मन के तत्वों के अनुकूल रूपांतरित करती रहती है ।



गीता में परम प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं ---- हे अर्जुन प्रभु किसी के कर्म ,
कर्म - फल की रचना नहीं करता , यह सब
उस ब्यक्ति के स्वभाव के अनुकूल होता है । जैसा कर्म होता है , वैसा फल मिलता है और फल यदि पूर्व चाह के अनुकूल न हुआ तो दुःख मिलता है और यदि चाह के मुताबिक़ हुआ तो हम सुख का अनुभव पाते हैं ।



भोगी ब्यक्ति जब तक भोग में है तब तक वह प्रभु ,पीर एवं फकीरों को नहीं समझ सकता ।

प्रभु भौतिक बस्तुओं से खुश नहीं होता , वह खुश होता है उनसे जो ------

[क] भोग की ग्रेविटी के प्रतिकूल सफ़र करते हैं

[ख] जो भोग से योग में कदम रखते हैं

[ग] जो योग में बैरागी बनते हैं

[घ] जो बैराग्य में प्रभु की अनुभूति पाते हैं

===== ॐ ======







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