गीता अमृत - 77

गीता का एक इशारा

आइये ! आप और हम मिल कर गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं -------
[क] गीता सूत्र 18.58
प्रभु अर्जुन को आगाह कर रहे हैं , कहते हैं - यदि तूं अहंकार के सम्मोहन में आकर मेरी बातों को अन सुनी करके युद्ध नहीं करता तो तेरा अंत निश्चित है और यदि तूं समर्पण भाव में मेरी बातों के अनुकूल काम करता है तो तेरा कल्याण ही कल्याण है ।
[ख] गीता सूत्र - 18.59
प्रभु कहते हैं - हे अर्जुन ! तूं बार - बार यह न कह की मैं युद्ध से भाग जाऊँगा , यह बिचार तेरे अंदर अहंकार के कारण है , लेकीन तूं यहाँ भूल रहा है की तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खीच ही लेगा ।
[ग] गीता सूत्र - 18.60
तूं मोह के कारण युद्ध से भागना चाहता है लेकीन तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खीच लेगा ।

ऊपर के सूत्रों से जो बात सामनें आती है वह इस प्रकार से है -----
## मोह में भी अहंकार की छाया होती है
## मनुष्य स्वभाव के अनुकूल कर्म करता है
अब आप देखें गीता सूत्र - 2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 14.10, 8.3
ये सूत्र कहते हैं ......
गुणों के कारण मनुष्य का स्वभाव बनाता है , स्वभाव से कर्म होता है और ऐसे सभी कर्म , भोग कर्म होते हैं ।
मनुष्य का गुणप्रभावित स्वभाव , भोग स्वभाव है लेकीन मूल स्वभाव है , अध्यात्म का ।
मनुष्य को भोग कर्मों में भोग तत्वों के त्याग के सम्बन्ध में साधना
करनें से वह भोग कर्म योग कर्म बन जाता है और वह मनुष्य भोग स्वभाव से
अध्यात्म स्वभाव में पहुँच कर धन्य हो उठता है ।
गीता का कर्म - योग ऊपर के छः
सूत्रों के आधार पर आगे बढता है ।

==== ॐ =======

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