गीता अमृत - 68

गीता श्लोक - 18.48

गीता कहरहा है ........ जैसे अग्नि बिना धुएं की नहीं हो सकती वैसे कर्म दोष रहित नहीं हो सकते ।
गीता के इस श्लोक को समझनें के लिए आप गीता के इन श्लोकों को भी देखें -----
3.5, 18.11, 5.22, 2.45, 18.38
गीता कह रहा है .......
कोई भी जीवधारी कर्म रहित हो नहीं सकता , कर्म तो करना ही पड़ता है और बिना कर्म किये , कर्म - निष्कर्मता की सिद्धि कैसे प्राप्त की जा सकती है , जो ज्ञान योग की
परा निष्ठा है । मनुष्य जो कुछ भी करता है वह सब गुणों के सम्मोहन के कारण करता है , ऐसे कर्म में मनुष्य स्वयं को करता अहंकार के प्रभाव में मानता है और गुण प्रभावित सभी कर्म , भोग कर्म हैं , जिनके सुख में दुःख का बीज होता है ।

कर्म तो करना ही है , बिना कर्म किये रहना सम्भव भी नहीं अतः हमें कर्म को साधना का माध्यम बनाकर भोग कर्म को योग - कर्म में बदल कर कर्म निष्कर्मता की सिद्धि को ओर चलना चाहिए जिस से परम गति मिल सकती है ।
गीता कहता है --- मनुष्य को केवल उन कर्मों को करना चाहिए जो
प्रकृति की जरुरत को पूरा करते हों और ऐसे कर्म ही सहज कर्म हैं ।
कर्म में कर्म - बंधनों की साधना , मनुष्य को प्रभु से जोडती है । कर्म करता जब यह समझनें लगता है की वह कर्म करता नहीं है , गुण कर्म करता हैं , मैं तो मात्र द्रष्टा हूँ , तब वह ब्यक्ति प्रभु से दूर नहीं होता ।

===== ॐ ==========

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