गीता अमृत - 67

मन एवं आत्मा

गीता में मन एवं आत्मा को समझनें के लिए गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए -------
[क] मन अपरा प्रकृति का एक तत्त्व है ..... गीता - 7.4 - 7.5
[ख] प्रभु कहते हैं - मनुष्यों में मन - चेतना , मैं हूँ ..... गीता - 10.22
[ग] आत्मा जब शारीर छोड़ कर जाता है तब इसके साथ मन भी रहता है ... गीता - 15.8
[घ] आत्मा देह में परमात्मा है .... गीता - 10.20, 13.22, 15.7, 15.11
[च] आत्मा - परमात्मा ह्रदय में रहते हैं .... गीता - 10.20, 13.17, 15.15, 18.61

मनुष्य के अन्दर मन एक ऐसा तत्त्व है जो मनुष्य को एक तरफ भोग की ओर भगाता है और जब यह
गुणों से अप्रभावित होता है तब यही मन प्रभु का दर्शन भी कराता है ।
साधना चाहे किसी भी मार्ग की हो सब का एक ही लक्ष्य होता है ; मन को निर्विकार बनाना ।
जितनी भी साधनाएं हैं सब मन केन्द्रित हैं । मनुष्य की पांच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पांच कर्म इन्द्रियाँ , मन के
फैलाव - रूप में हैं । मन अपनें काम को सुचारू रूप से चलानें के लिए इन्द्रियों को विकशित करता है ।
विज्ञान भी अब कहनें लगा है की मन शरीर समाप्त होने के बाद भी ज़िंदा रहता है ।

जो मन का गुलाम है ,वह है - भोगी
मन जिसका गुलाम है , वह है - योगी
मन जिसका चंचल है , वह है - भोगी
मन जिसका शांत है , वह हैं - योगी

===== ॐ =========

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