गीता अमृत - 64

गीता श्लोक - 18.40

पृथ्वी , देवलोक एवं अन्य सर्वत्र ऐसा कोई सत नहीं जिस पर गुणों का असर न हो ।

गीता श्लोक -7.12, 7.13 में प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं ..... तीन गुण एवं उनके भाव मनुष्य को प्रभु से दूर रखते हैं ।
तीन गुण एवं उनके भाव प्रभु से हैं और प्रभु स्वयं गुनातीत - भावातीत है । गीता के इसी अध्याय में आगे
प्रभु कहते हैं [ गीता श्लोक -7.14 - 7.15 ] ....... तीन गुणों की माया जिसको मैं बनाया हूँ , बड़ी दुस्तर है ,
माया में उलझा ब्यक्ति कभी भी प्रभुमय नही हो सकता । अब आप सोचना - यहाँ गीता गुण - मनुष्य एवं प्रभु का जो सम्बन्ध दे रहा है , कितना पेचीदा है । माया से माया में सब हैं , माया में सीमित ब्यक्ति प्रभु की ओर रुख नहीं कर सकता फिर प्रभुमय कैसे हुआ जाए ? गीता श्लोक - 2.16 में प्रभु कहते हैं -
सत भावातीत है अर्थात माया में जीनें वाला ब्यक्ति कभी सत को नहीं समझ सकता ।

गीता की कुछ बाते आप नें यहाँ देखी , अब आप अपनें बुद्धि के आधार पर सोंचे , प्रभु [ सत ] से कैसे
भरा जा सकता है ? असत से असत में हम हैं , भोग से भोग में हम हैं , माया से माया में हम हैं और
हमें पहुँचना है योग में , सत में एवं माया मुक्त होना है । यह तब संभव होगा ........
जब हम माया को समझ लें -----
जब हम गुणों को समझ लें ----
जब हम गुणों के भावों को जान लें ----
जब हम भोग तत्वों को समझ लें ----
अर्थात ......
सत असत अलग - अलग नहीं हैं , जैसे खान से हीरा निकाला जाता है वैसे असत में सत को खोजना चाहिए ।
सत कोई बस्तु नहीं की गए और उठा ले आये , सत की समझ आती है सघन साधना से ।

====ॐ======

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