महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चौथे अंग प्राणायाम के सम्बन्ध में पतंजलि योग सूत्र के आधार पर कुछ ज्ञान प्राप्त किया गया अब श्रीमद्भागवत पुराण के 06 सूत्रों के सार को देखते हैं , यहाँ 👇
आप को इस प्रश्न के लिए गीता के 27 श्लोकों का सारांश देखना है जिसको यहाँ दिया जा रहा है । गीता को भय के साथ न उठायें , यह तो आप का मित्र है । मित्र वह होता है जो बाहर - अंदर दोनों चहरे को देखनें में सक्षम होता है । गीता-श्लोक 7.3 कहता है ------- सदियों के बाद कोई एक सिद्ध - योगी हो पाता है और हजारों सिद्ध - योगियों में कोई एक परमात्मा तुल्य योगी होता है । श्री कृष्ण यह बात अर्जुन के प्रश्न - 7 के सन्दर्भ में कह रहे हैं और प्रश्न कुछ इस प्रकार है ........ अनियमित लेकिन श्रद्धावान योगी का योग जब खंडित हो जाता है तथा उसका अंत हो जाता है तब उसकी गति कैसी होती है ? परम से परिपूर्ण बुद्ध को खोजना नहीं पड़ता , उनको खोजनें लायक होना पड़ता है । हम-आप बुद्ध को क्या खोजेंगे ? , वे संसार में भ्रमण करते ही इस लिए हैं की कोई ऐसा मिले जो उनके ज्ञान - प्रकाश को लोगों तक पहुंचा सके । दक्षिण के पल्लव राजाओं के घरानें का राजकुमार पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व कोच्ची से चीन मात्र इसलिए पहुँचा की वह बुद्ध - ज्ञान की ज्योति को उस ब्यक्ति को दे सके जो इस काम के लिए जन्मा है । इस महान योगी को लोग बोधी धर्म का नाम द
गीता में परा भक्ति क्या है ? According to Gita what is steadfast devotion ? गीता में परा भक्ति एवं परा भक्त को ठीक से समझनें के लिए अप निम्न सूत्रों को देख सकते हैं :--10.7 , 6.15, 6.19 ,8.8 ,12.6, 12.7, 18.54 -18.55 ,6.30 ,13.29 ,15.18 -15.19 ,14.26 ,18.68 आगे चल कर गीता के इन सूत्रों को अलग – अलग से देखा जाएगा अभीं इन सभी सूत्रों के भाव को समझते हैं [ We shall be going through all these sutras later on but here we are going to touch the essence of these sutras ] गीता में गीता के शब्दों के भाव को खोजना गीता की साधना बन जाता है और गीता के शब्दों का परम्परागत अर्थ लगा कर बैठ जाना ऐसे हैं जैसे किसी मुर्दा के ऊपर गीता - पुस्तक को रख देना / इतनी बात याद रखना , गीता आप की आत्मा को दिशा देता है , आत्मा में जो उर्जा है उसे गीता दिखाता है और ऐसे पवित्र आयाम को जब हम अपना गुलाम बना लेना चाहते तब यह आयाम हमारा गुलाम तो नहीं बन पाता पर हमसे काफी दूर जरुर हो जाता है / परा - अपरा , निराकार – साकार , निश्चयात्मक – अनिश्चयात्मक , अविकल्प – सविकल्प , स्वर्ग – नर्क और परम धाम ऐस
यहाँ हम एक जटिल बिषय पर गीता में झाकनें का प्रयत्न कर रहे हैं जिस के लिए निम्न श्लोकों को गहराई से देखना है , तो आइये पहले श्लोकों से परिचय करते हैं -------- 2.37- 2.38, 2.42- 2.46, 3.9- 3.15, 4.24- 4.33, 6.40- 6.45, 9.15, 9.20- 9.22, 17.11- 17.15 यहाँ गीता के अध्याय 2, 3, 4, 6, 9, तथा 17 के 38 श्लोकों में जो मिलता है वह कुछ इस प्रकार है ------- मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जो प्रकृत से प्रकृत में है तो जरुर लेकिन अपनें को प्रकृत से अलग समझता है और यही कारण उसे सर्बोत्तम होनें पर भी सब से अधिक भयभीत रखता है । देखिये गीता-सूत्र 2.37- 2.38 श्री कृष्ण कहते हैं .....अर्जुन यदि तूं इस युद्ध में मारा जाता है तो तुझे स्वर्ग की प्राप्ति मिलेगी और यदि जीतता है तो राज्य का सुख मिलेगा , दोनों स्थितिओं में तेरा भला है अतः तूं युद्ध के लिए खडा हो जा । भोग का प्रलोभन दे कर युद्ध के लिए कह रहे हैं और आगे कहते हैं --यदि तूं सम- भाव में युद्ध करता है तो तेरे को कोई पाप भी नहीं लगेगा । अब आप श्री कृष्ण की आगे की बातों को देखिये ------ कर्म का होना मनुष्य के बस में नहीं है , मनुष्य गुणों के प्
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