गीता मूल तत्त्व आत्मा का एक और स्वरुप


गीता श्लोक –10.20


अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः


अहम् आदि : च मध्यम् च भूतानाम् अंत एव च


प्रभु कह रहे हैं-----


मैं सब भूतों के ह्रदय में स्थित आत्मा हूँ , सभीं भूतों का आदि मध्य एवं अंत भी हूँ


I am the Supreme Soul dwelling in the hearts of all beings , I ,m the beginning , the present life and the end of all beings .


गीता श्लोक –15.8


शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्राम्तीश्वर :


गृहीत्वैतानि संयाति वायु ; गंधानिवाशयात्


जैसे वायु गंध को अपनें साथ रखती है वैसे आत्मा अपने साथ मन एवं इंद्रियों को भी रखता है /


The Soul at the time of living the body takes away mind and the senses .




गीता में प्रभु के दो सूत्रों में जो हमनें देखा वह कुछ इस प्रकार से है---------


सभीं जीवों के ह्रदय में आत्मा जो है वह प्रभु का ही अंश है और आत्मा के कारण मनुष्य का जन्म जीवन एवं मृत्यु है अर्थात जबतक आत्मा देह में है तबतक मनुष्य जीव है , जबतक जीव है तबतक उसका वर्त्तमान का जीवन है और जब जीवन का अंत होता है तब आत्मा देह को त्याग कर गमन कर जाता है किसी और देह की तलाश में या फिर अपने परम श्रोत प्रभु में आत्मा रूपी बूँद समाजाती है और वह मनुष्य आवागमन से मुक्त हो जाता है / मनुष्य का आत्मा अतृप्त कामनाओं के करण भटकता है और अतृप्तता की तलाश उसे नये देह की तलाश करवाती है / मन कामनाओं का केन्द्र है और इन्द्रियाँ मन के ही फैलाव रूप में हैं या यूं कहें की मन अपनी सुविधा के लिए इंद्रियों का नेटवर्क बनाता है तो कोई अतिशयोक्ति न होगा /


देह , मन , इंद्रिय एवं आत्मा सम्बन्ध को आप गीता के दो सूत्रों के माध्यम से देखा , आप इन दो सूत्रों को अपनें ह्रदय में बैठाएं //


=== ओम्======


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