गीता अध्याय - 18 ( हिंदी में )

 


【 श्रीमद्भगवद्गीता के सभीं 18 अध्यायों का हिंदी भाषान्तर निम्न ब्लॉग्स में उपलब्ध हैं 】

★ गीता के मोती 

★ गीता तत्त्व विज्ञान

★ ॐ शांति ॐ 

★ कौन सुनता है 


गीता अध्याय : 18 का हिंदी भाषान्तर

गीता अध्याय - 18 सार 

गुण आधारित त्याग 03 प्रकार के हैं । 

● यज्ञ , तप और दान कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए ।

अर्जुन अपनें आखिरी प्रश्न ( श्लोक : 18.1 ) में संन्यास और त्याग को पृथक - पृथक जानना चाहते हैं ।

◆ कर्म त्याग , कर्म , ज्ञान , कर्म - करता , बुद्धि , धृतिका और सुख , ये सभीं तीन प्रकार के हैं । 

◆ ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र के कर्म अलग - अलग हैं।

पल भरके लिए भी पूर्ण कर्म त्याग संभव नहीं । 

● बिषय - इन्द्रिय संयोग से मिले  सुखका परिणाम बिष जैसा होता है । 

◆ आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य - सिद्धि मिलती है जो ज्ञानयोग की परानिष्ठा है । 

● तीन लोकोंमें ऐसा कोई सत्त्व नहीं जो गुणोंसे अछूता हो।

🐧 मन , वाणी और शरीर कर्म के श्रोत हैं । 

🌷 काम्य कर्मों का त्याग , कर्म सन्न्यास है । पूर्ण रूपेण कर्म त्याग संभव नहीं ।

गीता अध्याय : 18 का हिंदी भाषान्तर

श्लोक : 1 > अर्जुन 

➡️ महाबाहो हृषिकेश वासुदेव ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्वको पृथक् - पृथक् जानना चाहता हूँ 

श्लोक : 2 > प्रभु श्री कृष्ण 

◆श्लोक : 2 - श्लोक - 72 तक प्रभु के श्लोक हैं ◆

काम्यानां कर्माणं न्यासं , संन्यासं कवयः विदुः 

सर्व कर्मफत्यागम् प्राहु : त्यागम् विचक्षणाः 

➡️ काम्य कर्मों का त्याग , कर्म संन्यास है , और कर्मफल का त्याग , कर्म त्याग है

श्लोक : 3

दो मत हैं ; कुछ लोग कर्मों को दोषयुक्त समझते हुए कर्मत्याग की बात सोचते हैं और कुछ लोग यज्ञ , दान एवं तप कर्मों को नहीं त्यागना चाहते । 

श्लोक : 4

गुण आधारित त्याग 03 प्रकार के है ।

श्लोक : 5

यज्ञ , दान और तपरूप कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए । ये कर्म मनीषियों को पावन करते हैं ।

श्लोक : 6

यज्ञ , दान , तप और अन्य कर्मों को भी आसक्ति रहित एवं कर्म - फल की सोच मुक्त अंतःकरण के साथ करते रहना चाहिए ।

श्लोक : 7

नियत कर्म का संन्यास उचित नहीं । मोह के कारण कर्म - त्याग करना तामस त्याग है

🌷 नियत कर्म क्या हैं ?

शास्त्र आधारित कर्म , प्रकृति अनुकूल कर्म और स्वभाव के अनुकूल कर्म  , सहज कर्म -  नियत कर्म हैं ।

श्लोक : 8

सभीं कर्म दुःखसे परिपूर्ण हैं , ऐसा समझ कर यदि कोई शरीर क्लेश भय से कर्म का त्याग करता है तो वह कर्म - त्याग राजस त्याग है ।

श्लोक : 9

🌷 शास्त्र विहीत कर्म में आसक्ति और कर्म - फल की सोचका न होना ही सात्त्विक कर्म - त्याग है ।

श्लोक : 10

अकुशल कर्म से द्वेष न करना और कुशल कर्म से आसक्ति न रखनेवाला शुद्ध सात्त्विक गुण से युक्त संशयरहित मेधावी , त्यागी होता है ।

श्लोक : 11

🌷 शरीर धारी पूर्णरूपेण कर्म - त्याग नहीं कर सकता । कर्म - फल का त्यागी ही , त्यागी है।

श्लोक : 12

🌷 जो कर्म फल आश्रित कर्म करते हुए जी रहे हैं , उन्हें मृत्यु के बाद अच्छा . बुरा और मिश्रित कर्म - फलों को भोगना पड़ता है और कर्म फल त्यागी को किसी काल में कोई कर्म फल नहीं भोगना पड़ता ।

श्लोक : 13 और श्लोक : 14

कर्म सिद्धि के 05 हेतु  सांख्य में बताए गए हैं  ⏬

1- अधिष्ठान ( जिसके आश्रय कर्म किये जाय )  

2 - कर्ता 

3 - भिन्न - भिन्न प्रकार के करण ( जिन - जिन इन्द्रियों से एवं अन्य साधनों से कर्म किये जाते हों )  

4 - चेष्टा 

5 - दैव 

श्लोक : 15 > कर्म श्रोत 

मन , वाणी और शरीर , कर्म श्रोत हैं ।


श्लोक : 16

आत्मा को कर्ता समझने वाला  अशुद्धि बुद्धिवाला दुर्मति होता है ।

श्लोक : 17

जो कर्ता भाव मुक्त है , जिसकी बुद्धि कर्म में लिपायमान नहीं , वह पुरुष इन सभीं लोकों को मारकर भी , नहीं मरता और पाप मुक्त रहता है ।

श्लोक : 18 >कर्म प्रेणना - कर्म संग्रह 

ज्ञाता , ज्ञान और ज्ञेय - 03 प्रकार के कर्म प्रेणना हैं और कर्ता , करण एवं क्रिया कर्म संग्रह हैं ।

श्लोक : 19

ज्ञान , कर्म और कर्ता गुण आधारित 03 प्रकार के हैं 

श्लोक : 20 सात्त्विक ज्ञान

सब में अविभक्त अव्यय को देखना , सात्त्विक ज्ञान है । 

श्लोक : 21 राजस ज्ञान 

जिस ज्ञान से सम्पूर्ण भूतों में भिन्न - भिन्न प्रकारके नाना भावों को अलग - अलग जाना जाता है ।

श्लोक : 22

जो ज्ञान शरीर से आसक्त बनाता है , युक्त रहित है , वह ज्ञान तामस ज्ञान है ।

श्लोक : 23 सात्त्विक कर्म 

कर्तापन के अभिमान से मुक्त , राग - द्वेष मुक्त कर्म नियत कर्म , सात्त्विक कर्म हैं ।

श्लोक : 24 राजस कर्म 

भोग केंद्रित , अहंकारसे प्रभावित राजस कर्म होता है ।

श्लोक : 25  तामस कर्म

मोह प्रभावित कर्म तामसी कर्म हैं ।

श्लोक : 26 - 28 कर्ता 03 प्रकार के हैं 

★ सात्त्विक करता

अहंकार मुक्त , सङ्ग मुक्त , धैर्यवान , उत्साहयुक्त समभाव , निर्विकार सात्त्विक करता होते हैं ।

★ राजस करता 

आसक्तियुक्त , कर्मफल चाह वाले  , लोभी और अशुद्धाचारी राजस करता होते हैं ।

★ तामस करता 

तामस करता घमंडी , शोक करनेवाले  और आलसी होते हैं ।

श्लोक : 29 - 35

बुद्धि - धृतिका  03 प्रकारकी होती हैं 

श्लोक - 29 

◆ बुद्धि और धृतिका गुणाधारित 03 - 03 प्रकार की हैं …

श्लोक - 30

◆ प्रवृत्ति मार्ग , निवृत्ति मार्ग , कर्तव्य , अकर्तव्य , भय , अभय , बंधन , मोक्ष को यथार्थ समझनेवाली बुद्धि , सात्त्विक होती है।

श्लोक - 31

◆ धर्म - अधर्म , कर्तव्य - अकर्तव्य , यथावत जानने वाली बुद्धि राजस बुद्धि होती है ।

श्लोक - 32

◆ अधर्म को धर्म , सम्पूर्ण पदार्थों को विपरीत माननेवाली बुद्धि , तामस  बुद्धि होती है ।

श्लोक : 33 - 35

सात्त्विक धृतिका :

जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति से , योग द्वारा , मन - प्राण क्रियाओं को धारण करना होता है ...

राजसी धृतिका : 

कर्म फल चाह वाला जिस धारण शक्ति से पूर्ण आसक्ति से धर्म , अर्थ और कर्मों को धारण करता है ...

तामसी धृतिका : 

दुर्मेधा , निद्रा , भय , चिंता , दुःख , मद आदि को नहीं छोड़ता ।

श्लोक : 36 - 39

● सात्त्विक सुख 

सेवा अभ्यास से जो सुख मिले , प्रभु के गुण गान में जो सुख मिले , वह सुख सात्त्विक सुख है ।

● राजस सुख 

इन्द्रिय - बिषय संयोग में जो सुख मिले , वह राजस सुख होता है ।

● तामसी सुख 

जो सुख भोगकाल में और परिणाम में मोहित करता हो और निद्रा , आलस्य एवं प्रमाद से संबंधित हो , वह सुख तामस दुःख है ।

श्लोक : 40

🌷 पृथ्वी , आकाश और देवताओं में तथा इसके सिवा और कहीं भी कोई ऐसा तत्त्व नहीं जो गुणों से रहित हो ।

श्लोक : 41 >वर्ण व्यवस्था

ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त किये गए हैं ।


श्लोक : 42 ब्राह्मण के कर्म

1 - शमः ( अंतःकरण निग्रह ) ,

2 - दम ( इन्द्रिय दमन ) , 

3 - तप (धर्म पालन के कष्ट को सहना ) ,

4 -  शौंच ( अंदर - बाहर की निर्मलता ) , 

5 - क्षान्ति ( दूसरों के अपराध को क्षमा करना ) , 

6 - आर्जवम् ( इन्द्रिय , मन , शरीर को सरल रखना ) , 7 - अस्तिकयं ( ईश्वर में श्रद्धा का होना ) , 

8 - ज्ञान और विज्ञान 


श्लोक : 43 > क्षत्रिय के कर्म 

शूर - वीरता , तेज , धैर्य , चतुरता , युद्ध से न भागना , दान देना और ईश्वरभाव ।

श्लोक : 44 > वैश्य - शूद्र के कर्म 

खेती , गोपालन और वाणिज्य , क्षत्रीय के कर्म हैं तथा  सभी वर्णों की सेवा करना , शूद्र के कर्म हैं ।

श्लोक : 45 

🌷 स्वकर्म से परम गति मिलती है 

श्लोक : 46

जिससे भूतों की उत्पत्ति है , जिससे यह समस्त व्याप्त 

हैं ,उसकी स्वकर्म से आराधना (अभ्यचर्य ) से मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त करता है ।

श्लोक : 47

श्रेयान्  स्वधर्म : विगुणः परधर्मात्  स्वानुष्ठितात् ।

स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ।।

➡️ गुण रहित  स्वधर्म , अच्छी तरह से आचरित दूसरे के धर्म से श्रेय होता है। मनुष्य अपनें स्वभाव से नियत कर्म करता हुआ , पाप मुक्त रहता है ।

(श्लोक : 47 के साथ निम्न श्लोक : 3.35 को भी देखें )


श्रेयान्  स्वधर्म : विगुणः परधर्मात्  स्वनिष्ठतात् ।

स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्म:   भयावह: ।।3.35 ।।


➡️ गुण रहित स्वधर्म भी अच्छीतरह से आचरित दूसरे के धर्म से श्रेय होता है । अपने धर्म में मरना श्रेय है , परधर्म भयावह होता है ।


श्लोक : 48

🌷 जैसे अग्नि धुआँ मुक्त नहीं होता वैसे दोष मुक्त कर्म भी नहीं होता अतः सहज कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए ।

श्लोक : 49

➡️ सर्वत्र आसक्ति रहित  बुद्धिवाला स्पृहा रहित जीते हुए अन्तःकरण वाला , सांख्ययोगी परम् नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ।


श्लोक :50 

🌷 नैष्कर्म्यसिद्धि ज्ञानयोग की परानिष्ठा है जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है ।

श्लोक :51- 53

➡️ विशुद्ध बुद्धि युक्त हलका सात्त्विक भोजन करनेवाला शब्दादि बिषयोंका त्याग करके एकांत शुद्ध देश का सेवन करनेवाला , सात्त्विक धृतिका वाला , नियोजित अन्तःकरण वाला , राग - द्वेष मुक्त , वैराग्य का आश्रय लिया हुआ अहँकार , बल , घमंड , काम , क्रोध , त्यागी ध्यान योग परायण निर्मम शांत ब्रह्म केंद्रित ( ब्रह्म भूयाय )होने का पात्र होता है ।

श्लोक :54

ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा किसी के लिए शोक नहीं करता , आकांक्षा नहीं करता , समस्त भूतों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त होता है ।

श्लोक :55

➡️ वह ( ऊपर श्लोक - 54 में जो बताता गया है )  परा भक्त मुझे पूर्णरूपेण तत्त्वसे जानकर तत्काल मुझमें प्रवेश कर जाता है ।

श्लोक :56

➡️ कर्मयोगी मेरे परायण सभीं प्रकार के कर्मों को करता हुआ भी सनातन परमपद को प्राप्त होता है ।

श्लोक :57

➡️ हे अर्जुन ! तुम मनसे सभीं कर्मों को मुझे अर्पित करके बुद्धियोग माध्यम से मेरे परायण हर पल अपनें चित्त को मुझ पर स्थिर रखो ।

श्लोक :58

मुझमें चित्त वाला होकर मेरी कृया से समस्त संकटों को पार कर जाएगा और यदि तुम अहंकार के प्रभाव में मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो तुम नष्ट हो जाएगा और  परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा ।

श्लोक :59

➡️ अहँकार के प्रभाव में जो तूँ यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा , यह तेरा निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा ।

श्लोक :60

तूँ जिस कर्म को मोह के सम्मोहन में नहीं करना चाहता , उसे अपनें स्वभाव के कारण तुझे करना ही पड़ेगा ।

श्लोक :61

ईश्वर सभीं भूतों के हृदय में स्थित होकर सभीं को अपनी माया से यंत्रवत भ्रमण करा रहे हैं ।

श्लोक :62

हे भारत ! पूर्णरूपेण ईश्वर की शरण में जा। उसके प्रसाद से परम् शांति सनातन परम् धाम को प्राप्त होगा ।

श्लोक :63

➡️ इस प्रकार मैं तुम्हें अति गोपनीय ज्ञान दे दिया है , अब तूँ जैसा चाहे , वैसा कर ।

श्लोक :64

⚛ फिर भी तुम मेरे अति गोपनीय परम् वचन को फिर सुन । तूँ मेरा अतिशय प्रिय है इसलीए परम् हितकारी यह वचन मैं तुझे बता रहा हूँ ।

श्लोक :65

⚛ मुझ में मनवाला हो , मेरा भक्त बन , मेरा पूजन करने वाला बन , मुझे प्रणाम कर , ऐसा करने से तूँ मुझे प्राप्त करेगा ।

श्लोक :66

सर्व धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणं व्रज ।

अहम् त्वा सर्व पापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

🌷 सभीं धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ जा , मैं तुम्हें सभीं पापों से मुक्त कर दूँगा ।


श्लोक :67

➡️ जो यह ज्ञान मैं तुमको दिया है उसे तुम किसी ऐसे मनुष्य को मत बताना जो तप - भक्ति रहित एवं सुनने की चाह न रखने वाला हो।

श्लोक :68

जो मेरा परम् प्रेमी मेरे भक्तों के मध्य इस ज्ञान की चर्चा करेगा , वह मुझे ही प्राप्त होगा ।

श्लोक :69

जो इस ज्ञान को भक्तों में बाटता है , उससे बढ़कर और कोई प्रिय कार्य नहीं और उससे बड़ा पृथ्वी पर और कोई मेरा भक्त भी नहीं ।

श्लोक :70

जो पुरुष धर्मयुक्त मेरे और तुम्हारे मध्य हो रहे संवाद को पढ़ेगा , उसके द्वारा ज्ञान - यज्ञ द्वारा मैं पूजित होऊँगा । 

श्लोक :71

जो श्रद्धायुक्त , दोष - दृष्टि रहित श्रवण करेगा , वह भी पाप से मुक्त होकर श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा 

श्लोक :72

हे पार्थ ! क्या तुम इस ज्ञान को एकाग्र चित्त से श्रवण किया ? क्या तेरा अज्ञान सम्मोह नष्ट हुआ ?

श्लोक :73 > अर्जुन …

हे अच्युत ! आपकी कृया से मेरा मोह नष्ट हो गया है । मैंने अपनी खोई स्मृति को प्राप्त कर ली है । अब मैं संदेह रहित होकर स्थित हूँ । अब मैं आजके आज्ञा का पालन करूँगा ।


⚛श्लोक : 74 - 78 संज्जय के हैं ⚛

श्लोक :74 > सज्जय

➡️ मैं ( संज्जय ) इस तरह  वासुदेव और महात्मा अर्जुन के मध्य अद्भुत रोमहर्षण संवाद को सुना ...


श्लोक :75 > सज्जय

➡️ श्री व्यास जी के प्रसाद स्वरूप मैं  इस गुह्य योग को प्रभु श्री कृष्ण के मुख से सुना है ।

श्लोक :76 > सज्जय

हे राजन् ! केशव और अर्जुन के इस पुण्य अद्भुत  संवाद को बार - बार स्मरण करके मैं हर्षित हो रहा हूँ ।

श्लोक :77 > सज्जय

हे हे राजन् ! श्रीहरि के उस अत्यंत अद्भुत रूपका भी 

बार - बार स्मरण करके मुझे विस्मय और हर्ष हो रहा है।

श्लोक :78 >सज्जय

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर पार्थ  हैं , श्री विजय भी वहीं है  , यह ध्रुव नीति है , ऐसा मेरा मत है ।

~~◆◆ ॐ ◆◆~~

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

गीतामें स्वर्ग,यज्ञ, कर्म सम्बन्ध