गीता के116सूत्रों की माला

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गीता सूत्र –4.22

यद् इच्छा लाभ संतुष्ट:

द्वन्द अतीत:विमत्सरः

सम:सिद्धौ असिद्धौ च

कृत्वा अपि ण निवध्यते//


जो मिल गया बिना चाहे उस से संतुष्ट जो रहता हो …..

सभीं परिस्थितियों में जो सम रहता हो …..

ऐसा ब्यक्ति कर्म का गुलाम नहीं होता//


He who is contended with whatever is got unsought , is free free from jealousy and

has transcended all pairs of dualities and is balance under different circumstances

he remains stable , such man is perfect Karma – Yogin and he does not get controlled by

his Karma .


गीता का कर्म – योग प्रभु श्री कृष्ण का वह उपहार है जो भारत भूमि पर सर्वत्र उपलब्ध है

लेकिन उसे लेनेंवाला कोई नहीं दिखता,यह एक अछूता उपहार पिछले पांच हजार साल से

यहाँ सर्वत्र अपनी रोशनी फैला रहा है और लोग अँधेरे में भटक रहे हैं//

मैं भी उन्हीं लोगों में से एक हूँ जो भटक रहे हैं,मैं कोई योगी नहीं

महान पापी हूँ और अपनें पिछले पापों को धो कर यहाँ से जाना चाह रहा हूँ//


=====ओम======


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