गीता की यात्रा



भाग - 10

गीता अध्याय - 05 के प्रारम्भ में अर्जुन प्रश्न करते हैं ------

कर्म संन्यास एवं कर्म योग में उत्तम कौन है और मेरे लिए कौन सा उपयोगी होगा ?
इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु के लगभग 60 श्लोक हैं लेकीन फिर भी यह स्पष्ट नहीं होता की अर्जुन के लिए कौनसा
उत्तम रहेगा [ गीता सूत्र 5.2 से सूत्र 6.32 तक प्रश्न के उत्तर रूप में हैं ] ।
गीता भ्रम क दवा है लेकीन भ्रम प्रारभ में एलोपैथिक दवा की तरह तुरंत फ़ायदा नहीं करता लेकीन यदि आप
गीता में रमें रहे तो एक दिन गीता का भ्रम आप में से भ्रम की मूल को भी निकाल कर कहेगा ......
लो देखो , यह है वह रसोली जो न जीनें दे रही थी न मरनें ।
अर्जुन के प्रश्न के सम्बन्ध में गीता में आगे जानें की जरुरत नहीं है पीछे चलें - अध्याय - 03 में ।
अध्याय तीन में प्रभु कहते हैं [ श्लोक - 3.5 , 3.27 , 3.33 ] ......

मनुष्य के अन्दर मैं करता हूँ का भाव उसके अहंकार का प्रतिबिम्ब होता है ......
मनुष्य करता नहीं है , गुण करता हैं ....
मनुष्य तो एक माध्यम है ....
मनुष्य को यह समझना है की .....
वह तीन गुणों का गुलाम क्यों है ?.....
जिस दिन उसको यह समझ आजाती है , उस दिन वह .....
प्रश्न रहित हो कर प्रभु में केन्द्रित हो जाता है ।

अब आप देख सकते हैं ------
कर्म - संन्यास में वह ब्यक्ति कदम रखता है .....
जो गुनातीत हो जाता है , और ....
गुनातीत वह होता है जो ....
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ....
प्रभु से प्रभु में देखता है ॥

देखा आपनें गीता की गंभीरता को ?

===== ॐ ======

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