गीता की यात्रा



भाग - 08

ज्ञानम् ते अहम् सविज्ञान
इदं वक्ष्यामि अशेषत :
यत ज्ञात्वा न इह भूयः ॥ गीता - 7.2
प्रभु कहते हैं -------
अर्जुन अब मैं तेरे को सविज्ञान , ज्ञान दे रहा हूँ - ऐसा ज्ञान जिसको जाननें के बाद
कुछ और जाननें को शेष नहीं बचता ॥

प्रभु अध्याय - 07 के प्रारम्भिक सूत्र में कहते हैं .......
तुम योग के माध्यम से मेरे तक पहुँच सकते हो और
यहाँ जोकह रहे हैं [सूत्र - 7.2 में ] उसे आप देख ही रहे हैं ॥

गीता सूत्र - 4.38 में प्रभु कहते हैं ......
योग - सिद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है और सूत्र - 13.3 में कहते हैं ......
जिस से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , वह ज्ञान है ॥
ज्ञान - विज्ञान शब्दों का आदि शंकराचार्य , रामानुजाचार्य ,
श्रीधराचार्य आदि सभी लोग अपना - अपना भाव जगह - जगह पर
ब्यक्त करते रहे हैं लेकीन गीता से कुछ दूरी बनाए हुए ।

ज्ञान और विज्ञान क्या हैं ?
विज्ञान वह है जो इन्द्रियों , मन और बुद्धि के सहयोग से मिलता है
और ज्ञान वह है जो चेतना से टपकता है ,
कभी - कभी किसी - किसी को और जो संदेह रहित स्थिति में मन - बुद्धि में
प्रभु की किरण को दिखाता है ॥
ज्ञान वह है -----जो
मन - बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा का संचार करे
और .....
विज्ञान वह है जो .......
मन - बुद्धि को संतुष्ट करे ॥
साधना की अपनी गंभीरता है ;
चेतन अनुभव को ब्यक्त करना कठिन है और ऐसा अनुभव ही सत का
अनुभव होता है अर्थात ----
सत्य को ब्यक्त करना एक असंभव प्रयाश होता है और -----
ज्ञानी यहीं चूक जाता है ॥
ज्ञान जो सत को अपनें में समाये रहता है ,
वह एक ऊर्जा है जिसको पकडनें की कोई राह नहीं ,
हाँ
एक विकल्प है -
वह है .....
सत पुरुष की संगती मेंस्वयम को बसाए रखना ॥

==== ॐ =====

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