गीता की यात्रा

भाग - 09

मनुष्याणां सहस्त्रेसु
कश्चित् ययती सिद्धये ।
यततां अपि सिद्धानां
कश्चित् माम वेत्ति तत्त्वत : ॥ गीता - 7.3

हजारों लोग मेरी ओर चलना चाहते हैं और चलते भी हैं ,
उनमें किसी - किसी को सिद्धि भी मिलती है और
सिद्धि प्राप्त लोगों में कोई - कोई मुझे तत्त्व से जानता है ।

प्रभु को तत्त्व से जानना क्या है ?
गीता में जगह - जगह पर आप को यह बात मिलती है , आखिर इसका भाव क्या है ?
मनुष्यों में अधिकाँश लोग प्रभु की ओर क्यों चलते हैं ?
केवल और केवल दो कारणों में से कोई एक कानन होता है ;
पहला कारण हो सकता है -
भोग मार्ग में कोई रुकावट का न आना और
दूसरा कारण हो सकता है -
जो रुकावट आयी है , वह दूर हो जाए ॥
यदि ये दो कारण न हों तो
क्या कोई मंदिर या गुरुद्वारे की और अपना रुख करेगा ?

कुछ मनोवैज्ञानिक कहते हैं ----
भगवान् शब्द का निर्माण भय से है , जहां भय है , वहाँ भगवान् का मंदिर है - ऐसा समझिये की --
भगवान् भय की इंटों से बने मंदिर में रहता है ।
यह बातें उनकी हैं जो भोगी और अहंकारी हैं
यदि इस बात को आप मीरा से कहें ,
नानकजी साहिब से कहें या कबीरजी साहिब से कहें तो वे लोग आप के मुख को देखते रह
जायेंगे ।
यहाँ इस सन्दर्भ में गीता की दो बातों को आप देखिये -----

** गीता कहता है .....
भोग और भगवान् को एक साथ एक समय में एक मन - बुद्धि में रखना संभव नहीं ॥

** गीता यह भी कहता है .....
ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि सीमा से परे की है ॥
जब ......
तन , मन और बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा निर्विकार हो जाती है तब ....
उस तन , मन एवं बुद्धि में प्रभु की खुशबू आनें लगती है और .....
उस खुशबू को कहते हैं ....
प्रभु को तत्त्व से जानना ॥
तत्त्व से जाननें का यह अर्थ नहीं की आप .....
प्रभु की गणित बनानें बैठ जाएँ ,
Prof. Einstein कहते हैं ......
दो प्रकार के ज्ञान हैं ;
एक निर्जीव ज्ञान है जो किताबों से मिलता है , और ...
दूसरा ज्ञान है वह ....
जो चेतना से बुद्धि में बूँद - बूँद किसी घडी टपकता है ॥

===== ॐ =====

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