गीता की यात्रा




बिषय से मन तक

ज्ञानेन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों को तलाशती रहती हैं
और
बिषयों के अन्दर जो राग - द्वेष होते हैं , वे इन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं ।
और
बिषय से आसक्त इन्द्रिय मन के साथ बुद्धि को भी सम्मोहित करती है ।
इन्द्रियों को बिषयों से दूर रखना असंभव तो नहीं लेकीन
यह हठ - योग का अभ्यास मनुष्य के अन्दर
अहंकार को और मजबूत करता है ,
अतः .......
बिषय - इन्द्रिय मिलन का द्रष्टा बननें का अभ्यास करना चाहिए ।
कर्म - योग एवं ध्यान का यह है - पहला चरण ॥
बिषयों के स्वाभाव को तो हम बदल नहीं सकते .....
इन्द्रियों को स्थूल रूप में रोका तो जा सकता है
लेकीन उस बिषय पर मन तो मनन करता ही रहेगा ,
फिर
इन्द्रियों को हठात बिषयों से दूर रखनें से क्या फ़ायदा ?
बिषय को समझो ....
इन्द्रियों से मैत्री बना कर उनके साथ रहो .......
इन्द्रियों के साथ यात्रा भी करो .....
लेकीन .....
इस यात्रा पर अपनें मन को देखते रहो .....
मन उस घड़ी विचार की मुद्रा में न हो जब इन्द्रिय अपनें बिषय में रम रही हो .....

छोटी - छोटी बाते हैं जो ......
ध्यान में उतारती हैं
या
योग में लाती हैं ,
लेकीन ....
इन बातों को पकडनें वाले न के बराबर हैं ॥
ध्यान का .....
योग का ....
आयुर्वेद का .....
सब का ब्यापार चल रहा है ......
दुकान से यदि -----
ध्यान और योग मिलना संभव होता तो ....
जुर्जिएफ़ को अलेक्जेंड्रिया से गोबी रेगिस्थान तक की यात्रा ....
बुद्ध को महल छोड़ कर जंगल में जानें की यात्रा ....
महाबीर को जंगल में निर्बस्त्र होनें की ......
क्या जरुरत थी ?

==== ॐ =====

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