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आसक्ति से हुआ कर्म भोग है

1 - गीता सूत्र - 3.19  आसक्ति रहित कर्म प्रभु को दिखाता है  2 - गीता सूत्र - 5.10  आसक्ति रहित कर्म करनें वाला  जैसे कमल-  पत्र पानी में रहते  हुए  पानी से अप्रभावित, उससे   अछूता रहता है वैसे भोग कर्म में रहता है  3 - गीता सूत्र - 5.11 कर्म योगी के कर्म उसे और निर्मल करते हैं  4 - गीता सूत्र - 18.49  आसक्ति रहित  कर्म से नैष्कर्म्यता की सिद्धि मिलती है  5 - गीता सूत्र - 18.50  निष्कर्मता की सिद्धि ही ज्ञान योग की परा निष्ठा है  6 - गीता सूत्र - 4.23 आसक्ति रहित कर्म कर्म बंधन मुक्त बनाता है  गीता के छः सूत्रों को आज  आप अपना सकते हैं  === ओम् =====

ध्यान से परमात्मा का बोध

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ----- ध्यानेन आत्मनि पश्यन्ति केचित् आत्मानं आत्मना अन्ये साङ्ख्येन योगेन  कर्म योगेन च अपरे गीता - 13.24  " ध्यान , सांख्य , योग एवं कर्म योग से मुझे समझाना संभव  है  लेकिन .... ध्यान में जो उतरता है जब उसकी बुद्धि निर्विकार स्थिति में पहुंचती है तब वह अपनें ह्रदय में मुझे महशूस करता है / "  ह्रदय का प्रभु से गहरा सम्बन्ध है  - यहाँ आप गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें तो अच्छा रहेगा / गीता श्लोक - 18.61 , 15.15 , 13.17 , 10.20  गीता इन श्लोकों के माध्यम से कह रहा है - - - - - - - आत्मा , प्रभु श्री कृष्ण , ईश्वर और ब्रह्म का निवास ह्रदय में है  साधना में ह्रदय की इतनी मजबूत स्थित क्यों है ? साधक के लिए ह्रदय वह इकाई है जहाँ से भाव उठते हैं और भाव वह माध्यम हैं जिनके सहयोग से भावातीत की स्थिति का बोध संभव है / भावातीत मात्र प्रभु हैं और कोई नहीं और आत्मा एवं ब्रह्म प्रभु के संबोधन स्वरुप हैं / भाव तब अवरोध का काम करनें लगते हैं जब कोई भाव में बहनें लगता है लेकिन भावों की किस्ती से परम पद की यात...

भक्त और भोगी

योग का मार्ग भोग से निकलता है  योगी भोगी का शत्रु नहीं  भोगी योगी का शत्रु हो सकता है  योगी योगी की भाषा समझता है  भोगी न योगी की भाषा समझता है न अपनी भाषा , वह संदेह में बसा होता है  योगी योग सिद्धि तो एकांत में होती है और वह अपनी अनुभूति बाटनें बस्ती आता है  योगी के शब्द और हमारे शब्द एक होते हैं लेकिन दोनों के भाव अलग - अलग होते हैं  योगी अपनी अनुभूति ब्यक्त करता है और हम उसे अपनी तरह देखते हैं  योगी पंथ का निर्माण नहीं करता , उसके पीछे चलनें वाले  बुद्धिजीवी उसके न रहनें के बाद पंथ ब्यापार प्रारम्भ करते हैं जे . कृष्णमूर्ति जी कहते हैं - Truth is pathless journey और हम लोग आये दिन नये नये मार्ग बना रहे हैं ज़रा अपनी चारों तरफ नज़र डालना , आप को साईं - सनी महाराज की झांकिया आये दिन देखनें को मिलेगीं , अब श्री राम , हनुमान , श्री कृष्ण से लोगों का लगाव घटता जा रहा है  भोगी के दिल में योगी के लिए तबतक जगह है जबतक उसे यकीन है कि हो न हो अमुक योगी से हमें भोग प्राप्ति में कोई सहयोग मिल जाए और जिस दिन यह आस्था टूटेगी , योगियों ...

गीता कहता है --- [ 3 ]

गीता कर्म - योग के तीन और श्लोक .... .. [  1] - गीता सूत्र - 2.59  इंद्रियों को बिषयों से अलग रहते समय होश मय रहो क्योंकि मन तो उन - उन बिषयों से जुड़ा  ही रहता है [ 2 ] गीता सूत्र - 2.58  कर्म - योगी अपनी इंद्रियों को ऐसे नियंत्रण में रखता है जैसे एक कछुआ अपनें अंगों पर रखता है [ 3 ] गीता सूत्र - 3.34 ऐसा कोई बिषय नहीं जो राग - द्वेष की उर्जा न रखता हो गीता कर्म - योग के सूत्रों में से तीन सूत्रों को आज यहाँ दिया गया है जिनको एक बात पुनः अपनी स्मृति में रखनें का प्रयाश करते हैं और आज हम जो भी करें गीता के इन तीन सूत्रों की छाया में ही करें और देखें कि गीता की ऊर्जा हमें कहाँ से कहाँ ले जा रही है ---- पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और सबके अपनें - अपनें बिषय हैं / ज्ञान इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण करना और जो बिषय जिस ज्ञान इंद्रिय को सम्मोहित करनें में सफल हो जाता है वह इंद्रिय मन को सम्मोहित करनें में कोई कसर नहीं छोडती /  बिषय  इंद्रियों को  सम्मोहित करते हैं .... इंद्रियां मन को ..... मन बुद्धि को ..... और बुद्धि प्...

गीता कहता है ---- [ 2 ]

गीता के तीन सूत्र  सूत्र - 1 , 2.60 आसक्त इंद्रियों का गुलाम है   सूत्र - 2 , 67  प्रज्ञा आसक्त मन  का गुलाम  है  सूत्र - 3 , 3.6  हठ से इंद्रिय नियोजन करनें वाला दम्भी - अहंकारी होता है  गीता के इन तीन सूत्रों पर आप मनन करें : हमारी इन्द्रियाँ बिषयों का गुलाम है  हमारा मन बिषय - आसक्त इंद्रिय का गुलाम है  और इंद्रिय का गुलाम मन प्रज्ञा  को गुलाम बना कर रखता है  फिर  कर्म - योग में कैसे  उतरें ? सोचिये इस बिषय पर और सोच में सोच से परे आप ज्योंही पहुंचेंगे , आप का रूपांतरण हो गया होगा / ==== ओम् ==== =

गीता कह रहा है .......

जिसका कर्म त्याग मन से हुआ होता है उसकी आत्मा नौ द्वारों वाले घर में चैन से रहती है गीता - 5.13 परम पद स्वप्रकाशित है गीता - 15.6 सात्त्विक गुण के उदय होनें पर सभीं द्वार प्रकाशित होते हैं गीता - 14.11 ज्ञान से परम प्रकाश की अनुभूति होती है गीता - 5.16 काम - क्रोध - लोभ रहित परम पद प्राप्त करता है गीता - 16.21 - 16.22 गीता के इन मूल मन्त्रों को आप अपनें जीवन से जोड़ें ==== ओम् =====

गीता की एक ध्यान विधि

गीता श्लोक - 8.12 , 8.13 [क] सभीं द्वार बंद हों [ख] मन ह्रदय में स्थित हो [ग] प्राण तीसरी आँख पर केंद्रित हो [घ] देह से पोर - पोर से ओंम् धुन गूँज रही हो " ऐसे आयाम में सहस्त्रार चक्र से प्राण को देह छोड़ते हुए का जो द्रष्टा बना होता है , उसे परम गति मिलती है / " गीता का यह ध्यान तिब्बत के लामा लोगों का बारडो ध्यान जैसा है और जैन परम्परा में ऐसा ही ध्यान है - संथारा * देह में नौ द्वार हैं [ देखिये गीता सूत्र - 5.13 ] * मन का ह्रदय में बसना अर्थात मन का संदेह रहित होना अर्थात पूर्ण समर्पण आप गीता की इस विधि को समझें लेकिन करें नहीं क्योंकि ------ भोग से परम गति तक की मनुष्य की यात्रा में यह ध्यान आखिरी सोपान है जहाँ प्रभु उस योगी के लिए दृश्य नहीं रह जाते / मनुष्य की नजर तो प्रभु पर कभीं टिकती नहीं लेकिन प्रभु की नजर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं से कभी हटती भी नहीं / ==== ओम् =====