कर्म फल की सोच भाग एक

गीता तत्त्वों को हम यहाँ गीता संकेत श्रंखला में देख रहे हैं और अब देखनें जा रहे हैं कर्म फल की चाह /

कर्म फल की चाह क्या है?

कर्म फल की चाह एक कामना है और कामना को हम पहले देख चुके हैं / कामना का अर्थ है वह प्यास जो कभीं न बुझती हो / बुद्ध कहते हैं , कामना दुस्पुर होती हैं " / मन में कामना की एक खिडकी होती है जो कभीं - कभीं बंद सी दिखती तो है लेकिन बंद होती नहीं / एक कामना दूसरे को जन्म देती है और दूसरी तीसरी को और यह क्रम चलता रहता है / गीता में परभी श्री कृष्ण बार – बार कहते हैं की वह जो कर्म फल की चाह का त्याग कर दिया हो वह ज्ञानी होता है और आवागमन से मुक्त हो कर हमारे परम धाम में पहुँचता है , तो आइये देखते हैं गीता के कुछ सूत्रों को /

गीता श्लोक –2.47

कर्मणि एव अधिकार:ते मा फलेषु कदाचन/

मा कर्म् फल हेतु:भूः मा ते संग:अस्तु अकर्मणि//

अर्थात

ते कर्माणि एव अधिकारः फलेषु कदाचन मा

कर्म फल हेतुः मा भूः ते अकर्मणि संग मा अस्तु

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फल में कभीं नहीं इसलिए तूं कर्म फल का हेतु मत हो , तेरी कर्म न करनें में भी आसक्ति न हो //

You certainly have the right for prescribed activities but never at anytime in their results . You should never be motivated by the results of the actions , nor should there be any achachment in not doing the prescribed actions .

पर के सूत्र में तीन बातें हैं -----

  • कर्म करनें का अधिकार [ right of doing ]

  • कर्म करनें में उसके परिणाम की सोच का होना

    [ doing should not have thinking of its result ]

  • कर्म न करनें ही सोच का भी न होना [ one should not think of not doing at any stage ]

गीता का यह सूत्र देखनें में जितना सरल है ब्यवहार में उतना कठिन/

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं----

कोई भी जीव धारी एक पल के लिए भी कर्म मुक्त नहीं हो सकता … .. गीता - 18.11

कोई कर्म ऐसा नहीं जो दोष मुक्त हो … .. गीता - 18.48

अतः दोष युक्त कर्म होने पर भी सहज कर्मों को करते रहना चाहिए क्योंकि -----

कर्म के बिना नैष्कर्म्य की सिद्धि नहीं मिलती

नैष्कर्म्य कि सिद्धि ही ज्ञान योग की परा निष्ठा है गीता - 18.50

और ज्ञान परम धाम का द्वार है //




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