कर्म योग समीकरण

गीता श्लोक –2.59 , 2.60 , 3.6 , 3.7

श्लोक –2.59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः/

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते//

ऐसे लोग जो किसी तरह अपनी इंद्रियों को इस स्थिति में ले आते है जब उनकी इन्द्रियाँ बिषयों की ओर रुख नहीं करती लेकिन उनमें बिषयों की आसक्ति तो बनी रहती है पर स्थिर प्रज्ञ पुरुष जो प्रभु केंद्रित रहता है उसमें यह आसक्ति भी समाप्त हो गयी होती है /

श्लोक –2.60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः/

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः//

आसक्ति जबतक है तबतक इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखेंगी

श्लोक –3.6

कर्म इन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्/

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार:स उच्यते//

मूढ़ ब्यक्ति समस्त इंद्रियों को हठात बाहर – बाहर से नियोजित करके मन से बिषयों का चिंतन करत रहता है , ऐसा ब्यक्ति दम्भी होता है

श्लोक –3.7

यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन/

कर्म इन्द्रियै:कर्म योगं असक्तः सः विशिष्यते//

हे अर्जुन ! वह जो मन से इंद्रियों को समझ कर उनको बश में रखता है वह बिषयों में अनासक्त ब्यक्ति कर्म – योगी होता है

गीता के चार सूत्र कह रहे हैं-------

इंद्रियों को हठात नियोजित नहीं करना चाहिए , इंद्रियों का संचालन मन से होता है अतः मन से इंद्रियों के साथ मैत्री स्थापित करना चाहिए , मित्रता के आधार पर उनके स्वभाव को समझ कर होश बनाना चाहिए और इंद्रिय - बिषय संयोग से जो भी होता है वह भोग होता है जिसके भोग में क्षणिक सुख दिखता तो है लेकिन उस सुख में दुःख का बीज होता है /

मन को इंद्रियों का मित्र बना कर इंद्रियों के रूख को बदला जा सकता है और यह बदलाव कर्म को

कर्म – योग में बदल देता है/

Try to understand the nature of senses and to develop a good friendship with them . A good freindship with senses will keep senses away from the attachment and a man with control over his senses will be in Karma – Yoga . To control senses by force is not advisable .

===== ओम्======


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