गीता की यात्रा ------

भाग - 01

प्रभु अर्जुन से कहते हैं :--------
अर्जुन ! मुझको समझनें के दो मार्ग हैं - कर्म और ज्ञान ॥
कर्म , ध्यान , तप , भक्ति और ज्ञान - पांच मार्गों के लोग यहाँ देखे जाते हैं ,
वैसे और भी कई मार्ग हैं
प्रभु की ओर रुख करनें के ।
मार्ग एक राह है जो सीधे आगे की ओर ले कर चलता चला जाता है
लेकीन ज्यादातर लोग सीधे नहीं चल पाते ,
उनको एक चौराहा पर ही घूमनें में मजा आता है और वह चौराहा होता है ----
भोग का ॥
गुणों की जाल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुयी है ; इस से वही बच पाता है
जो गुनातीत हो जाता है और ......
गुनातीत मात्र एक प्रभु हैं और न दूजा , कोई ...... ।

वह जो कर्म के माध्यम से ......
वह जो ध्यान के माध्यम से ...
वह जो तप के माध्यमसे .....
या
वह जो किसी और माध्यम से ,
मायामुक्त हो जाता है ,
वह प्रभु तुल्य योगी
सीधे परम धाम में निवास करता है ।
जब तक ......
योगी को यह मालूम रहता है की वह कुछ कर रहा है जो
सिद्धि दिलानें वाला है , तबतक वह योगी गुमराह रहता है , उसकी यात्रा रुक गयी होती है और ....
जब छोटे बच्चे की भांति अबोध अवस्था जैसी स्थिति में पहुंचता है अर्थात ......
लोग समझते हैं यह पागल है
और वह उनमें प्रभु को देख - देख कर मुस्कुराता रहता है ,
यह स्थिति होती है जहां योगी किसी भी समय उस पार की छलांग भर सकता है
और उसकी छलांग प्रभु के प्रसाद रूप में होती है ॥
आप मार्गों के इतिहास में न उलझें ,
जो भाये उसे ही अपना लें और उसे छोड़े न ॥
मार्गों को ऊर्जा मिलती है श्रद्धा से -
जितनी गहरी शुद्ध श्रद्धा होगी ,
प्रभु आपके उतना ही करीब होगा ॥

आज इतना ही

=== ॐ =====

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