गीता मर्म - 50

संन्यास: कर्मयोग: च निः श्रेयस करौ उभौ ।
तयो: तु कर्म - संयासात कर्मयोग: विशिष्यते ॥
गीता - 5.2

गीता में प्रभु कह रहे हैं :------

कर्म - योग एवं संन्यास , दोनों मुक्ति पथ हैं लेकीन सीधे संन्यास में पहुंचना अति कठिन है ॥

प्रभु की बातें यदि भोगी के लिए इतनी आसान होती तो ......
अर्जुन जैसे के लिए भी गीता ज्ञान की जरुरत न पड़ती , क्यों की ......
अर्जुन कोई साधारण ब्यक्ति न थे , उनके अन्दर भी कोई ऊर्जा देखनें के बाद ,
प्रभु अपनाए होंगे ।
प्रभु क्यों कह रहे हैं -------
कर्म - योग , कर्म संन्यास से उत्तम है ?
आम भोगी के लिए सीधे संन्यास में पहुँचना असंभव है , क्योंकि भोग कर्म में
जब भोग तत्वों की पकड़
नहीं होती तब वह कर्म योग बन जाता है । भोग कर्म से जब वही कर्म योग बन जाता है
तब संन्यास का द्वार
खुलता है ।
संन्यास , है क्या ?
भोग कर्मों में पैदा हुआ होश , कर्म बंधनों को ढीला करता है और जब कर्म बंधन न के
बराबर हो जाते हैं
तब ......
वह कर्म , योग कहलाता है .....
और कर्म बंधनों की अनुपस्थिति कर्म - संन्यास कहलाता है ॥
कर्म संन्यासी की कोई बाहरी पहचान नहीं है , कर्म संन्यासी को एक कर्म संन्यासी ही
समझता है , भोगी को
पहचानना असंभव है ।
संन्यास का अर्थ यह नहीं की -----
गलियों में भीख मागना .......
कर्म न करना .......
दूसरों की पीठ पर सवार रहना .......

संन्यासी वह जिसके साथ होनें पर अन्तः कर्ण में एक ऎसी ऊर्जा का प्रवाह होना
जिसका पहले कोई अनुभूति न हुयी हो ॥
सन्यासी कुछ देता नहीं ....
संन्यासी कुछ लेता भी नहीं ....
संन्यासी तो एक रेडिओ धर्मी पदार्थ की भाति होता है जिससे निर्विकार ऊर्जा का
विकिरण हर पल
होता रहता है ।
संन्यासी गंगा होता है , जो चाहे जब चाहे उसमें नहा सकता है ॥

======= ॐ =======

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