गीता मर्म - 38


गीता श्लोक - 18.11
न हि देह - भृता शक्यं त्यक्तुम कर्माणि अवशेषतः ।
य: तु कर्म फल त्यागी स: त्यागी इति अभिधीयते ॥

श्लोक के शब्दों का अर्थ :--
नहीं , निश्चय , ही , देहधारी , द्वारा , संभव है , त्यागनें के लिए , कर्म , पूर्णतया ।
जो , लेकीन , कर्म के , फल का , त्याग , करनें वाला , वह , त्यागी , इसप्रकार , कहलाता है ॥
गीता का श्लोक और संधि विच्छेद के साथ प्रत्येक शब्दों का यथा संभव अर्थ आप के सामने है ,
अब आप इनको बार - बार पढ़ें और गूनें , ऐसा करनें से प्रभु की बात को आप स्वयं पकडनें में सफल
हो सकते हैं ।
मैं जो समझ रहा हूँ वह कुछ इस प्रकार से है :------
यह श्लोक अर्जुन के इस प्रश्न के सन्दर्भ में कहा गया है --------
हे प्रभु ! मैं संन्यास एवं त्याग के तत्वों को अलग - अलग समझना चाहता हूँ ।
प्रभु कहते हैं .......
अर्जुन कर्म मुक्त होना तो संभव नहीं लेकीन कर्म में फल की कामना का न होना संभव हो सकता है ।
यदि कर्म फल कामना के बिना हो तो वह कर्म संन्यास कहलायेगा ।
कर्म बिना फल - कामना के होना तब संभव है जब
कर्म - योग साधना में गहरी पैठ हो ।
गीता श्लोक - 18.2 में प्रभु कहते हैं ...........
कामना रहित कर्म , संन्यास का द्वार है ॥

मेरे सिमित बुद्धि से जो संभव था , मैं आप के सामनें रखनें का प्रयत्न किया हूँ ,
मैं कोई सिद्ध योगी तो हूँ नही ,
अतः प्रभु के शब्दों का अर्थ लगाने में मैं सफल कैसे हो सकता हूँ ।
मैं चाहता हूँ की --------
जब मेरी आखिरी श्वास निकले तब भी मेरी बुद्धि गीता के शब्दों में कहीं खोयी रहे ॥

===== ॐ ======

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