गीता मर्म - 47

गीता के दो रत्न :-------

युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस: ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थाम अधिगच्छति ॥
गीता - 6.15

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
गीता - 4.38

गीत में प्रभु अर्जुन को कह रहे हैं :-----

गीता - 6.15

हे अर्जुन मन - माध्यम से निर्वाण तक की यात्रा का नाम , ध्यान है

गीता - 4.38

यहाँ प्रभु कहते हैं :---

हे अर्जुन ! चाहे तूं योग में उतरो या साधना का कोई और माध्यम चुनों ,
सब से जो मिलेगा , वह ज्ञान होगा

गीता से यदि आप मोतियों को चुनना चाहते हैं तो मोटर - बोट से
यात्रा नहीं करनी पड़ेगी , आप को
गीता सागर में देर तक दुबकी लेनें का अभ्यास करना पडेगा ।
गीता, यात्रा में उस जगह पहुंचा कर चुप सा हो जाता है
जहां से भोग संसार बहुत दूर बहुत धूमिल सा
दिखता है जहां से वापस जाना संभव नही दिखता और आगे जो
दिखता है उसे ब्यक्त करना
संभव नहीं , ऎसी स्थिति में गीता योगी क्या करे ?

ऊपर जो दो सूत्र दिए गए हैं , उनको आप बुद्धि - योग की बुनियाद
समझ कर अपनें पास रख
सकते हैं और समय - समय पर आप इनमें अपनी बुद्धि लगाते रहें ,
आज नहीं तो कल सही
आप को ज्ञान माध्यम से निर्वाण मिलेगा ही ॥

===== ॐ =======



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