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गीता कहता है ---- [ 2 ]

गीता के तीन सूत्र  सूत्र - 1 , 2.60 आसक्त इंद्रियों का गुलाम है   सूत्र - 2 , 67  प्रज्ञा आसक्त मन  का गुलाम  है  सूत्र - 3 , 3.6  हठ से इंद्रिय नियोजन करनें वाला दम्भी - अहंकारी होता है  गीता के इन तीन सूत्रों पर आप मनन करें : हमारी इन्द्रियाँ बिषयों का गुलाम है  हमारा मन बिषय - आसक्त इंद्रिय का गुलाम है  और इंद्रिय का गुलाम मन प्रज्ञा  को गुलाम बना कर रखता है  फिर  कर्म - योग में कैसे  उतरें ? सोचिये इस बिषय पर और सोच में सोच से परे आप ज्योंही पहुंचेंगे , आप का रूपांतरण हो गया होगा / ==== ओम् ==== =

गीता कह रहा है .......

जिसका कर्म त्याग मन से हुआ होता है उसकी आत्मा नौ द्वारों वाले घर में चैन से रहती है गीता - 5.13 परम पद स्वप्रकाशित है गीता - 15.6 सात्त्विक गुण के उदय होनें पर सभीं द्वार प्रकाशित होते हैं गीता - 14.11 ज्ञान से परम प्रकाश की अनुभूति होती है गीता - 5.16 काम - क्रोध - लोभ रहित परम पद प्राप्त करता है गीता - 16.21 - 16.22 गीता के इन मूल मन्त्रों को आप अपनें जीवन से जोड़ें ==== ओम् =====

गीता की एक ध्यान विधि

गीता श्लोक - 8.12 , 8.13 [क] सभीं द्वार बंद हों [ख] मन ह्रदय में स्थित हो [ग] प्राण तीसरी आँख पर केंद्रित हो [घ] देह से पोर - पोर से ओंम् धुन गूँज रही हो " ऐसे आयाम में सहस्त्रार चक्र से प्राण को देह छोड़ते हुए का जो द्रष्टा बना होता है , उसे परम गति मिलती है / " गीता का यह ध्यान तिब्बत के लामा लोगों का बारडो ध्यान जैसा है और जैन परम्परा में ऐसा ही ध्यान है - संथारा * देह में नौ द्वार हैं [ देखिये गीता सूत्र - 5.13 ] * मन का ह्रदय में बसना अर्थात मन का संदेह रहित होना अर्थात पूर्ण समर्पण आप गीता की इस विधि को समझें लेकिन करें नहीं क्योंकि ------ भोग से परम गति तक की मनुष्य की यात्रा में यह ध्यान आखिरी सोपान है जहाँ प्रभु उस योगी के लिए दृश्य नहीं रह जाते / मनुष्य की नजर तो प्रभु पर कभीं टिकती नहीं लेकिन प्रभु की नजर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं से कभी हटती भी नहीं / ==== ओम् =====

गीता योग सूत्र - 01

गीता योग सूत्र नाम से यह एक नयी श्रृंखला प्रारम्भ की जा रही है जिसमें गीता के लगभग 200 सूत्रों से 32 गीता योग सूत्र दिए जायेंगे जिनका सम्बन्ध सीधे गीता  के  माध्यम से ध्यान में उतरना संभव है ,  तो आइये चलते हैं अगले सोपान पर : ................... गीता योग सूत्र - 01 1- सूत्र -  2.60 मन आसक्त इंद्रिय का गुलाम है 2- सूत्र - 2.67 बुद्धि आसक्त मन का गुलाम है 3 - सूत्र - 3.6 जोर जबरदस्ती से इंद्रियों को दबानें से अहँकार सघन होता है 4- सूत्र - 2.59 इंद्रियों को बिषयों से दूर रखनें से क्या होगा ? मन तो     उन - उन बिषयों पर मनन करता ही रहेगा 5- सूत्र - 2.58 इंद्रिय न्यंत्रण ऐसा रहे जैसे कछुए का नियंत्रण उसके अंगों पर रहता है 6 - सूत्र - 3.34 सभीं बिषयों में राग - द्वेष की ऊर्जा होती है 7 - सूत्र - 3.7 मन से इंद्रियों का नियोजन होना चाहिए 8 - सूत्र - 2.68 इंद्रिय नियोजन से स्थिर प्रज्ञता मिलाती है 9 - सूत्र - 2.55 स्थिर प्रज्ञा आत्मा से आत्मा में स्थित प्रभु मय होता है अब ----- आगे इन नौ सूत्रों में तैरना आप को है , आज बश इतना ही // ...

गीता श्लोक - 2.60

गीता के 700 श्लोकों  में लगभग 200 ऐसे श्लोक हैं जिनका सम्बन्ध सीधे ध्यान से है और इस दो सौ श्लोकों का पहला श्लोक आप से साथ कुछ इस प्रकार है ......... यतत: हि अपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित : इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः गीता - 2.60  " बिषय में आसक्त इंद्रिय मनुष्य के मन को हर लेती है " बिषय , ज्ञान इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं कर्म इंद्रियों का आपसी गहरा सम्बन्ध है /  पांच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और सबका अपना - अपना बिषय है / ऐसा कोई बिषय नहीं जिसमें राग -द्वेष न् हों [ गीता - 3.34 ] और यही राग - द्वेष ज्ञान इंद्रियों को सम्मोहित करते हैं और इस सम्मोहन से वैरागी इन्द्रियाँ रागी इंद्रियों में बदल जाती हैं / वैरागी इंद्रियों के साथ बसा मन प्रभु का दर्पण होता है और रागी इंद्रियों से आसक्त मन भोग संसार का दर्पण होता है / इंद्रिय - बिषय के संबंधों का द्रष्टा ही गीता का समभाव योगी होता है / ==== ओम् ========

Sandeh evam manushya

Gita kahata hai  ( 4.40,4.42) :----- Sandeh ke saath sukhi rahana sambhav nahii ...... Aur Sandeh agyan ki pahachan hai // Ab aap in do samikarano ko apane Dhyan ka maafhysm banayen . ***** OM ******

गीता के कृष्ण में डूबो

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ------ [ क ] इन्द्रियाणाम् मनश्चास्मि ..... गीता - 10.22 अर्थात इंद्रियों में मन मैं हूँ // और यहाँ कह रहे हैं ---------------------- तु ये इन्द्रियग्रामम् सन्नियम्य अचिन्त्यम् सर्वत्रगम् च कूतस्थं ध्रुवं अचलम् अब्ययम् अक्षरं पर्युपासते ते सर्वभूतहिते रताः सर्वत्र समबुद्धयः माम् एव प्राप्नुवन्ति ........ गीता - 12.3 - 12.4 अर्थात अचिंत्य , सर्व्यापी , समभाव , अब्यय , अब्यक्त , अक्षर परम ब्रह्म की अनुभूति मन बुद्धि से परे की होती है // अब सोचिये ----- मैं ही मन बुद्धि हूँ मेरे अधीन परम ब्रह्म है [ गीता - 14.3 - 14.4 ] और ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है / प्रभु और आगे यह भी कह रहे हैं कि .... गीता - 7.10 बुद्धिः बुद्धिमताम् अस्मि // बुद्धिमानों में बुद्धि मैं हूँ ==== ओम् ======