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ज्ञान - विज्ञान

ज्ञान - विज्ञान श्रीमद्भागवत और गीता के आधार पर ज्ञान और विज्ञान की परिभाषा कुछ इस प्रकार से बनती है : * गीता कहता है : क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है । * भागवत कहता है : शुद्ध इन्द्रिय , मन और बुद्धि के सहयोग से जो अनुभव होता है वह ज्ञान है और वह अनुभूति जिससे सबको एक के फैलाव स्वरुप देखा जाय , विज्ञान है । दोनों बातों को आप अपनें ध्यान का विषय बनाएं और कुछ दिन का मनन आप को जहां पहुंचाए वहाँ कुछ ठहरिये और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अकेले होनें की स्थिति को देखते रहें , आप को जो मिले उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर स्वीकारें । यह ज्ञान - विज्ञान का ध्यान आप को इन्द्रियों के माध्यम से मन से गुजार कर बुद्धिसे परिचय कराते हुए जहां पहुंचाएगा वह आयाम होगा  विज्ञान का । ~~~ ॐ ~~~

भागवत स्कन्ध तीन ध्यान - सूत्र

Title :भागवत स्कन्ध तीन ( ध्यानसुत्र ) Content: भागवत स्कन्ध - 03 (ध्यानसुत्र) 1- द्रष्टा - दृश्य का अनुसंधान - उर्जा का नाम माया है 2- संसार में दो प्रकार के लोग सुखी हैं - एक बुद्धिहीन और एक स्थिर बुद्धि ब्यक्ति 3- अनात्म पदार्थ हसीन नहीं हैं जैसा प्रतीत होते हैं 4- बिषयों का रूपांतरण काल का आकार है 5- काल प्रभु की चाल है ( 2.1.33 ) 6- ब्रह्म काल चक्र के घुमने की धुरी है 7- विद्या , दान , तप , सत्य धर्म के चार पद हैं 8- बंधन - मोक्ष का कारण मन है 9- ज्ञान मोक्ष का द्वार है 10- भक्ति , वैराग्य , मन की एकाग्रता से ज्ञान प्रकट होता है और ज्ञान से देह में स्थित क्षेत्रज्ञ का बोध होता है 11- जैसे जल से रस पृथ्वी से गंध को अलग करना संभव नहीं वैसे प्रकृति से पुरुष को अलग करना संभव नहीं 12- असुर प्रभु के तामस भक्त हैं जो प्रभु को अपनें मन में  द्वेष के कारण धारण किये रहते हैं ~~~ ॐ ~~~

गीता अध्याय - 02

Title :गीता अध्याय - 02 Content: >>गीता अध्याय - 02 << (क) श्लोकों की स्थिति :--- संजय : 03 ; 1, 9,10 , कृष्ण : 63 अर्जुन : 06 ; 4,6,7,8,54, –––---------------------- योग > 72 --------------------------- * 2.1> संजय : करुणा में डूबे , ब्याकुल अर्जिन से प्रभु यह बात कही :--- * 2.2,2.3 > प्रभु :यह असमय में मोह कैसा , जो आर्य पुरुषों द्वारा न आचरित है , न स्वर्ग की ओर ले जाने वाला है और न कीर्ति दिला सकता है अतः ह्रदय की दुर्बलता त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जा । * 2.4 > अर्जुन : भीष्म एवं द्रोणाचार्य के खिलाफ कैसे लडूं , दोनों पूजनीय हैं (सूत्र-1.25अर्जुन का रथ इन दोनों के सामने ही खड़ा है ) । *2.5 > महानुभाव ! गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन करना उत्तम समझता हूँ । गुरुओ को मार कर उनके खून से सने भोग को ही तो भोगना होगा । *2.6 > मुझे कुछ पाया नहीं चल रहा की युद्ध करू या न करू , इन दो में कौन उत्तम है , कौन जीतेगा और कौन हारेगा , कुछ पता नहीं चल पा रहा , धृत राष्ट्र के पुत

सांख्य योग से सत्य की ओर

भारत में हमारे बुद्धिजीवी [ ऋषि - मुनि ] उसकी तलाश के नये - नये मार्ग तलाशे जिसे आज के कण वैज्ञानिक प्रयोग शाला में तलाश रहे हैं / भारत प्रभु को केन्द्र मान  कर मनुष्यों की दो श्रेणियाँ बनायी - आस्तिक और नास्तिक / आस्तिक श्रेणी में ऐसे लोग आते हैं जो ब्रह्माण्ड के होनें और ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं के होनें का कारण एक शक्ति को मानते हैं जिसे परमात्मा कहते हैं /नास्तिक वर्ग के लोगों में परमात्मा के होनें की सोच नहीं होती , उनकी सोच ठीक वैसी होती है जैसी सोच आज के वैज्ञानिकों की है / वैज्ञानिक समुदाय पिछले तीन सौ साल से दो भागों में बता हुआ दिखता है ; एक वर्ग परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है लेकिन उसे कर्ता रूप में न देख कर एक नियम के रूप में देखता है जैसे आइन्स्टाइन और दूसरा वर्ग पूर्ण रूपेण नास्तिक वर्ग है / आस्तिक वर्ग में न्याय , सांख्य , वैशेषिक , योग , पूर्व मिमांस , वेदान्त - ये 06 मार्ग विकशित हुए लेकिन धीरे - धीरे इनमें बदलाव आता गया / न्याय और सांख्य दोनों मार्गों को मिला दिया गया और सांख्य भी धीरे - धीरे लुप्त होता चला गया / भागवत की रचना द्वापर के अंत की है ,  भागवत

गीता अध्याय - 13 भाग - 18

गीता श्लोक - 13.26 यावत् सज्जायते  किज्चित् सत्त्वं स्थावर्जंगमम्  / क्षेत्रक्षेत्रज्ञ संयोगात् तत् विद्धि भारतर्षभ  // " यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं , हे भारत ! जितनें भी स्थावरजंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं  वे सभीं क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के संयोग के कारण उत्पन्न होते हैं // " " All movable and unmovable are due to the combination of Kshetra and kshetragya . " क्षेत्र क्या है ? और क्षेत्रज्ञ क्या है ? इन दो प्रश्नों के लिए आप को वापिस जाना होगा गीता श्लोक - 13.1 और 13.2 पर / गीता श्लोक - 13.1  यहाँ प्रभु कह रहे हैं , " हे अर्जुन ! इदं शरीरं क्षेत्रः " अर्थात यह शरीर क्षेत्र है  और  गीता श्लोक - 13.2  यहाँ प्रभु कह रहे हैं , " भारत ! सर्व क्षेत्रेषु क्षेत्रज्ञ माम् विद्धि " अर्थत सभीं क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ तुम मुझे समझो /  श्लोक - 13.1 में प्रभु बता रहे हैं कि यह शरीत क्षेत्र कहा जाता है और अगले श्लोक में [ श्लोक - 13.2 ] में कहते हैं , सभीं क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ / अब देखना होगा कि शरीर क्या है और शर

गीता अध्याय - 13 भाग - 17

गीता श्लोक - 13.24  ध्यानेन आत्मनि पश्यन्ति केचित् आत्मानं आत्मना  अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्म योगेन च अपरे  " ध्यान माध्यम से किसी - किसी को प्रभु की झलक ह्रदय में मिलती है " " किसी - किसी को सांख्ययोग के माध्यम से मिलती है " " किसी - किसी को कर्म - योग के माध्यम से मिलती है " " Meditation , intelligence based yoga and action - yoga , these are the available sources through which one can reach to the ultimate realization of the Supreme " मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जो अपनें लिए तो घर बनाता ही है प्रभु के लिए भी घर बनाता है और वह यह भी चाहता है कि प्रभु उसके ही घर में उसके परिवार का एक सदस्य बन कर रहें /  प्रभु कैसा है ? प्रभु कहाँ है ? प्रभु क्या है ? ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न हैं , मनुष्य की बुद्धि में और जब इन प्रश्नों को समझनें का मौक़ा आता है तब हम चूक  जाते हैं / ऐसा कोई मनुष्य नहीं होगा जिसके जीवन में प्रभु की एक झलक न मिली हो लेकिन ज्योही झलक मिलनी होती है , हमारी आँखें झपक पड़ती हैं /  मंसूर को जब झलक मिली तब वह बोल उठा - अन

गीता अध्याय - 13 भाग 16

गीता श्लोक - 13.23  यः एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिम् च  गुणै: सह सर्वथा वर्तमानः अपि न सः भूयः अभिजायते  " जो प्रकृति - पुरुष को समझता है , उसका वर्तमान चाहे जैसा हो पर वह आवागमन मुक्त होजाता है " " The awareness of Prakriti [ nature ] and Purush [ the omnipresence ] takes to  liberation ." अध्याय - 13 के प्रारम्भ में प्रभु कहते हैं - क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है / क्षेत्र अर्थात देह और क्षेत्रज्ञ अर्थात देह को चलानें वाली ऊर्जा का परम श्रोत प्रभु का अंश जीवात्मा /  अब देखिये गीता श्लोक - 13.20 जहाँ प्रभु कह रहे हैं ..... कार्य और करण प्रकृति से हैं / पांच बिषय और पञ्च महाभूत तत्त्व विज्ञान में कार्य कहलाते हैं और 10 इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं अहँकार को करण कहते हैं / गीता श्लोक - 13.21 में प्रभु कहते हैं , प्रकृति में ही पुरुष स्थित है / अब इस तत्त्व ज्ञान को समझते हैं कुछ इस प्रकार से ----- एक परमेश्वर जिसका कोई साक्षी नहीं , कोई गवाह नहीं , कोई द्रष्टा नहीं तब जब प्रकृति न हो / परमेश्वर से परमेश्वर में तीन गुणों की उसकी मा