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गीता यात्रा

सत क्या है ? गीता में एक सूत्र है - 2.16 नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सतः सत्य सर्वत्र है और असत का कोई अपना अस्तित्व नही ॥ सत क्या है ? सत को आदि शंकाराचार्य से लेकर जे कृष्णामूर्ति तक सभी लोग परिभाषित किये हैं लेकीन सत को परिभाषित करना ..... कल असंभव था ... आज असंभव है .... और कल भी असंभव ही रहेगा ॥ जे कृष्णा मूर्ति कहते हैं ------- सत मार्ग रहित यात्रा है - truth is a pathless journey और आदि शंकर कहते हैं .... truth is that in regards to which our consciousness never fails and untruth is that to which our consciousness fails . चेतना का सफल रहना और असफल होना चेतना को सिमीत करता है और ... मार्ग रहित यात्रा जो हो वह सत्य है - यह परिभाषा भी मन - बुद्धि सीमा में नहीं आती अतः सत को हम कुछ इस प्रकार से ब्यक्त कर सकते हैं ..... शांत मन - बुद्धि में जो रहता है , वह है सत ॥ सत अब्यक्त है सत असोच्य है सत अस्थिर मन - बुद्धि में नहीं बसता ... और मन - बुद्धि जिसके शांत है , वह ... स्थिर प्रज्ञा वाला योगी होता है , जो ---- ब्रह्म से ब्रह्म में रहता है ॥ अब आप सोचो की सत की परिभाषा .... क

गीता यात्रा

गीता कहता है ------ जिसमें सभी भूत जगे हुए होते हैं , योगी उसमें सोया रहता है और जिसमे सभी भूत सोये होते हैं , योगी उनमें जगा होता है गीता - 2.69 क्या है वह ? क्या वह भोग - योग है ? क्या वह परमात्मा है ? परमात्मा को याद करो - ऎसी बात आप तौर पर सुननें को मिलती है लेकीन ज़रा सोचना ...... आप कैसे परमात्मा को याद कर सकते हैं ? क्या आप उसको जानते हैं ? क्या अप उसको पहचानते हैं ? क्या आप उसकी आवाज से वाकिब हैं ? क्या आप उसकी गंध को पहचानते हैं ? क्या आप उसके रूप - रंग से वाकिब हैं ? आखिर आप उसे कैसे पहचानेंगे ? सीधे परमात्मा पर पहुँचना तो संभव नहीं लेकीन ..... कलाकार को पहचानना हो तो उसकी कला से दोस्ती करना पड़ता है । कलाकार कहीं न कहीं अपनें कला में होता ही है और प्रभु की कला है - यह संसार । संसार जैसा ठीक - ठीक वैसा जो देखनें में सक्षम है उसके लिए प्रभु दूर नहीं रहते और संसार को जो अपनें नज़र से देखते हैं , उस नज़र से जिसमें भ्रम की ऊर्जा प्रवाहित हो रही होती है , वे चूक जाते हैं , संसार को पहचाननें में । संसार को देखो लेकीन मन उस घड़ी भाव रहित स्थिति में हो और तब ...... आप किस आयाम में रह

गीता - यात्रा

** इन्द्रियों से मित्रवत ब्यवहार ...... ** इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण ....... ** मन में प्रभु रस के अलावा और कोई रस का न होना ......... ** निर्विवाद , अहंकार रहित और भ्रम रहित बुद्धि का होना ...... ** सभी द्वंदों से अप्रभावित रहना ...... ** सभीं गुण - तत्वों [ भोग तत्त्वों ] को समझ कर उनसे अप्रभावित रहना ..... ** कर्म में अकर्म का दिखाई पड़ना ..... ** अकर्म में कर्म करनें जैसा भाव का होना ...... ** सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सूचनाओं में प्रभु की झलक को पाना ...... प्रभु से ---- प्रभु में ----- हर पल बसे रहना ...... किसी को भी ...... गीता - योगी बनाता है ॥ ==== ॐ ======

गीता की यात्रा

[क] भोग में उठा होश , योग की यात्रा का प्रारभ है ॥ [ख] बिषय , इन्द्रिय और मन की समझ , वैराग्य का द्वार खोलता है ॥ [ ग] वैराग्य में ----- तन , मन और बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा निर्विकार हो जाती है ॥ [घ] वैरागी स्थिर प्रज्ञ होता है ॥ [च] स्थिर प्रज्ञ अपनी अलमस्ती में रहता है ॥ [छ ] स्थिर प्रज्ञ - योगी अपनें योगावास्था में गुणातीत हो उठता है और तब ...... वह ब्रह्म स्तर का हो कर ब्रह्म में ही डूबा रहता है ॥ ==== ॐ =======

गीता की यात्रा

बिषय से मन तक ज्ञानेन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों को तलाशती रहती हैं और बिषयों के अन्दर जो राग - द्वेष होते हैं , वे इन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं । और बिषय से आसक्त इन्द्रिय मन के साथ बुद्धि को भी सम्मोहित करती है । इन्द्रियों को बिषयों से दूर रखना असंभव तो नहीं लेकीन यह हठ - योग का अभ्यास मनुष्य के अन्दर अहंकार को और मजबूत करता है , अतः ....... बिषय - इन्द्रिय मिलन का द्रष्टा बननें का अभ्यास करना चाहिए । कर्म - योग एवं ध्यान का यह है - पहला चरण ॥ बिषयों के स्वाभाव को तो हम बदल नहीं सकते ..... इन्द्रियों को स्थूल रूप में रोका तो जा सकता है लेकीन उस बिषय पर मन तो मनन करता ही रहेगा , फिर इन्द्रियों को हठात बिषयों से दूर रखनें से क्या फ़ायदा ? बिषय को समझो .... इन्द्रियों से मैत्री बना कर उनके साथ रहो ....... इन्द्रियों के साथ यात्रा भी करो ..... लेकीन ..... इस यात्रा पर अपनें मन को देखते रहो ..... मन उस घड़ी विचार की मुद्रा में न हो जब इन्द्रिय अपनें बिषय में रम रही हो ..... छोटी - छोटी बाते हैं जो ...... ध्यान में उतारती हैं या योग में लाती हैं , लेकीन .... इन बातों को पकडने

गीता की यात्रा

मन से निर्वाण तक गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं : [क] अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में से एक तत्त्व मन है ..... [ख] मनुष्यों में चेतना और मन , मैं हूँ ....... मनुष्य का मन एक ऐसा माध्यम है जो ----- मनुष्य जहां है , वर्तमान में , वहाँ से दो तरफ ले जा सकता है ...... * नरक की ओर .... और ** निर्वाण की ओर .... वह जो .... अपनें मन की वर्तमान स्थिति को समझ गया , वह तो निर्वाण मेमन पहुँच सकता है ॥ वह जो .... वर्तमान में अपने मन का गुलाम है , उसे तो सीधे नरक ही जाना है , ऐसा समझो ॥ गीता में प्रभु कहते हैं : मन माध्यम से निर्वाण में पहुंचनें का केवल और केवल एक ही दिशा है .... ध्यान / योग का ..... और न दूजा कोई ॥ आप अपानें मन को समझें और ... यह निश्चित करे की ..... आप को किधर जाना है ॥ ==== ॐ =====

गीता की यात्रा

भाग - 10 गीता अध्याय - 05 के प्रारम्भ में अर्जुन प्रश्न करते हैं ------ कर्म संन्यास एवं कर्म योग में उत्तम कौन है और मेरे लिए कौन सा उपयोगी होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु के लगभग 60 श्लोक हैं लेकीन फिर भी यह स्पष्ट नहीं होता की अर्जुन के लिए कौनसा उत्तम रहेगा [ गीता सूत्र 5.2 से सूत्र 6.32 तक प्रश्न के उत्तर रूप में हैं ] । गीता भ्रम क दवा है लेकीन भ्रम प्रारभ में एलोपैथिक दवा की तरह तुरंत फ़ायदा नहीं करता लेकीन यदि आप गीता में रमें रहे तो एक दिन गीता का भ्रम आप में से भ्रम की मूल को भी निकाल कर कहेगा ...... लो देखो , यह है वह रसोली जो न जीनें दे रही थी न मरनें । अर्जुन के प्रश्न के सम्बन्ध में गीता में आगे जानें की जरुरत नहीं है पीछे चलें - अध्याय - 03 में । अध्याय तीन में प्रभु कहते हैं [ श्लोक - 3.5 , 3.27 , 3.33 ] ...... मनुष्य के अन्दर मैं करता हूँ का भाव उसके अहंकार का प्रतिबिम्ब होता है ...... मनुष्य करता नहीं है , गुण करता हैं .... मनुष्य तो एक माध्यम है .... मनुष्य को यह समझना है की ..... वह तीन गुणों का गुलाम क्यों है ?..... जिस दिन उसको यह समझ आजाती है , उस दिन वह ...