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प्यार परम प्रकाश की एक किरण है

प्यार में बसना तो सभव है लेकिन समझना असंभव कथा - 02 च्वांगत्सू लावोत्सू के शिष्य थे और जंगलमें एक कुटिया बना कर अपनी पत्नी से साथ रहते थे / च्वांगत्सू की पत्नी एक दिन प्राण त्याग दिया और यह समाचार पूरे राज्य में आग की भांति फै गया और उस राज्य का राजा च्वांगत्सू से मिलनें जंगल पहुचे / च्वांगत्सू के झोपड़े के सामनें कुछ कोग उपस्थित थे और जब राजा के आनें की खबर उन लोगों को मिली तो वे लोग तैयारी में लग गए / राजा रास्ते भर यह सोचता रहा कि वहाँ जा कर हमें किस तरह से अपना दुःख प्रकट करना होगा ? हमें क्यों न अब च्वांगत्सू जी को अपनें राज भवन में रहनें का निमंत्रण देना चाहिए ? राजा जब झोपड़े के सामनें पहुंचे तो लोग उनका अभिबादन किया / राजा अपनें घोड़े से उतर कर पूछा , “ कहाँ हैं गुरूजी ? “ वहाँ एक सज्जन राजा को पास में स्थित एक झाड के पास ले गए जहाँ च्वांगत्सू अपनी आँखों को बंद किये , एक छोटा सा वाद्य – यंत्र बजा कर कुछ गा रहे थे / राजा के आनें की खबर उनको दी गयी और वे आँखे खोले और अभिवादन किया एवं साथ में बैठनें का इशारा भी किया / राजा उनको देख कर घबडा गए और...

मित्रता और प्यार

प्यार को देखो , समझना तो संभव नहीं कथा - 01 इस कथा का सम्बन्ध फ़्रांस के एक गाँव से हैं / गाँव के दो बच्चे जो एक दूसरे के प्यारे मित्र थे यह विचार कर गाँव से शहर की ओर एक दिन चल पड़े कि चलते हैं शहर क्या पता वहाँ हमें अपनी इच्छा के मुताबिक़ आगे चलनें का मौक़ा मिल सके / कई दिनों की पैदल यात्रा के बाद वे शहर पहुंचे और एक पत्थर तोड़ने की कंपनी में उनको पत्थर तोडने का काम मिल गया / कुछ दिन काम करनें के बाद एक दिन दोनों मित्र आपस में सोच रहे थे कि भाई ! ऐसे कैसे काम बनेंगा हमसब को तो चित्रकार बनाना है ? एक मित्र बोला , ऐसा करते हैं , मैं तो यहाँ इस पहाड़ पर काम करता रहता हूँ और तुम शहर में जा कर चित्रकला का प्रशिक्षण लो , मैं कमा - कमा कर तुमको पैसा भेजता रहूंगा और जब तुम एक कुशल कलाकार बन जाना तब मैं भी चित्रकला सीख लूंगा / कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे ; दोनों एक दूसरे के लिए पत्थर तोडना चाहते थे आखिरकार एक को शहर में जा कर चित्र कला सीखना ही पड़ा / धीरे - धीरे समय गुजरता गया और कई सालों के बाद शहर गया मित्र एक बहुचर्चित चित्रकार बन कर वहाँ उस पहाडी पर अपनें मित्र से मिलनें आया / दोनों मित...

कर्म फल की सोच का त्याग

गीता श्लोक – 18.6 एतानि अपि तु कर्माणि संगम् त्वक्त्वा फलानि च कर्तब्यानि इति में पार्थ निश्चितं मतं उत्तमम् प्रभु इस सूत्र के माध्यम से अर्जुन को बता रहे हैं ---- सभीं कर्मों जैसे यज्ञ , तप , दान एवं अन्य सभीं कर्मों के करने के पीछे आसक्ति एवं फल की सोच की ऊर्जा नहीं होनी चाहिए / प्रभु कह रहे हैं … ... अर्जुन मनुष्य से जो कुछ भी होता है उसके होनें के पीछे कोई करण नहीं होना चाहिए जैसे आसक्ति एवं कर्म – फल की सोच / क्या है आसक्ति ? इन्दियाँ जब अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचती है तब मन उन – उन बिषयों पर मनन करनें लगता है और मनन के पीछे जो ऊर्जा होती है वह तीन गुणों में से किसी एक गुण की होती है ; जो गुण प्रभावी होगा उस समय मन वैसा मनन करेगा / मनन से मन में जो ऊर्जा बनती है उसे कहते हैं आसक्ति ; आसक्ति की ऊर्जा में चुम्बकीय शक्ति होती है जो बिषय को नजदीक खीचना चाहती है और तब कामना उत्पन्न होती है / कामना की सघनता ही संकल्प है और कामना का टूटना क्रोध की ऊर्जा पैदा करता है / क्रोध अग्नि है जो मनुष्य को राख बना कर भी चैन नहीं लेता / ...

गीता संकेत - 55

कर्म फल की सोच और गीता यहाँ हम गीता में उन श्लोकों से अपना परिचय बना रहे हैं जिनका सीधा सम्बन्ध है कर्म फल की सोच / ऐसा कौन होगा जो कर्म करनें से पहले उसके फल के सम्बन्ध में न सोचता हो ? संभवतः इस संसार में कोई हो या न हो लेकिन गीता का श्री कृष्ण सांख्य – योग राज जरुर इस तरह के योगी हैं / आइये देखते हैं प्रभु श्री कृष्ण के इस श्लोक को जिसका सम्बन्ध कर्म – कर्म फल की सोच से है / गीता श्लोक – 18.2 काम्यानां कर्मणाम् न्यासम् संन्यासम् कबयः विदुः सर्वकर्मफलत्यागं प्राहु : त्यागं विचक्षणा : पंडितजन काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं एवं अन्य विचार कुशल अनुभव युक्त ब्यक्ति सभीं कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं // काम्य कर्म क्या हैं ? काम्य शब्द काम से है और काम को सभी समझते हैं / गीता में अर्जुन का एक प्रश्न है [ गीता श्लोक – 3.36 ] - अर्जुन जानना चाहते हैं ----- मनुष्य न चाहते हुए भी पाप कर्म क्यों करता है ? और उत्तर के रूप में प्रभु कहते हैं [ गीता श्लोक – 3.37 ] ------ काम का सम्मोहन मनुष्य को हठात् पाप करवाता है / फ्राइड कहते ...

गीता संकेत 54 कर्मफल एवं योग

कर्म फल की सोच गीता में हम इस समय कर्म फल की सोच को देख रहे हैं और इस श्रंखला के अंतर्गत आज हम ले रहे हैं गीता श्लोक – 6.1 को जो इस प्रकार है ------ गीता श्लोक – 6.1 अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः स संन्यासी च योगी च न निरग्नि : न च अक्रियः इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से देखें ------- यः कर्मफलं अनाश्रितः कार्यं कर्म करोति सः संन्यासी च योगी च निरग्नि : न च अक्रियः न भावार्थ जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर करनें योग्य कर्म करता है वह संन्यासी तथा योगी है और … .. जो अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता तथा कृयाओं का त्याग करनें वाला योगी नहीं होता / Lord Krishna says : One who enacts obligatory prescribed actions without expectation of its result , he is truly a renunciate and a follower of the science of uniting the individual consciousness with the ultimate universal consciousness ; not one without prescribed duties , nor one who merely renounces bodily activities . प्रभु कह रहे हैं … ... भौतिक स्तर पर कर्म का त्याग करनें से कोई संन्...

गीता संकेत - 53 कर्म फल की सोच

गीता - तत्त्व कर्म फल की सोच गीता श्लोक – 2.51 कर्मजं बुद्धियुक्ता : हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण : जन्मबंधविनिर्मुक्ता : पदम् गच्छन्ति अनामयम् इस सूत्र को ऐसे देखें ----- हि बुद्धियुक्ता मनीषिणः कर्मजं फलं त्यक्त्वा जन्मबंधविनिर्मुक्ता : अनामयम् पदं गच्छति क्योंकि समबुद्धियुक्त ज्ञानीजन कर्म फल की सोच का त्याग करके जन्म – मृत्यु बंधन से मुक्त निर्विकार परम पद को प्राप्त करते हैं अर्थात समभाव की स्थिति वाला कर्म तो करता है लेकिन उस कर्म के फल की सोच उसके अंदर कभीं नहीं आती और वह कर्म – योगी निर्विकार परमपद को प्राप्त होता है अर्थात जिस कर्म के होनें में कर्म फल की सोच न हो वह कर्म परमगति का द्वार खोलता है // “ Endowed with spiritual intelligence wise man giving up the results arising from actions certainly liberate themselves from the bondage of birth and death attaining the state of complete tranquility .” Action performed without any desire liberates from birth and death cycle through the awareness of the ultimate truth . गीता पढ़ना जितन...

कर्म फल की सोच भाग एक

गीता तत्त्वों को हम यहाँ गीता संकेत श्रंखला में देख रहे हैं और अब देखनें जा रहे हैं कर्म फल की चाह / कर्म फल की चाह क्या है ? कर्म फल की चाह एक कामना है और कामना को हम पहले देख चुके हैं / कामना का अर्थ है वह प्यास जो कभीं न बुझती हो / बुद्ध कहते हैं , “ कामना दुस्पुर होती हैं " / मन में कामना की एक खिडकी होती है जो कभीं - कभीं बंद सी दिखती तो है लेकिन बंद होती नहीं / एक कामना दूसरे को जन्म देती है और दूसरी तीसरी को और यह क्रम चलता रहता है / गीता में परभी श्री कृष्ण बार – बार कहते हैं की वह जो कर्म फल की चाह का त्याग कर दिया हो वह ज्ञानी होता है और आवागमन से मुक्त हो कर हमारे परम धाम में पहुँचता है , तो आइये देखते हैं गीता के कुछ सूत्रों को / गीता श्लोक – 2.47 कर्मणि एव अधिकार : ते मा फलेषु कदाचन / मा कर्म् फल हेतु : भूः मा ते संग : अस्तु अकर्मणि // अर्थात ते कर्माणि एव अधिकारः फलेषु कदाचन मा कर्म फल हेतुः मा भूः ते अकर्मणि संग मा अस्तु तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फल में कभीं नहीं इसलिए तूं कर्म फल का हेतु मत हो , ...