Posts

गीता मर्म - 36

गीता और सांख्य कपिल मुनि द्वारा जनित लगभग 300 - 200 BCE सांख्य - योग भारत में प्रचलित आस्तिक के छः मार्गों में से एक है । गीता सूत्र - 10.26 में श्री कृष्ण कहते हैं ...... सिद्ध मुनियों में कपिल मुनि , मैं हूँ । आप शोध करें की यह कपिल मुनि सांख्य - योग के जन्मदाता वाले कपिल मुनि हैं या कोई और । भारत में यूनान की तरफ तर्क शास्त्र अति प्राचीन बिषय रहा है । तर्क शास्त्र विज्ञान की जननी है लेकीन भारत में यह आगे न चल पाया । न्याय , वैशेशिका , पुव मिमांस और सांख्य ये चार ऐसे बिषय थे भारत में , जो तर्क आधारित थे और बुद्धि के माध्यम से परम की यात्रा की ऊर्जा के भी श्रोत थे लेकीन भक्ति का यहाँ भारत में ऎसी हवा चली की सब वैज्ञानिक सोच जगानें वाले श्रोत धीरे - धीरे समाप्त होगये । आज कोई वेदान्त को भक्ति में लटका कर घूम रहा है तो कोई न्याय को अन्याय में दबाये फिर रहा है । गीता में लगभग 50 श्लोक ऐसे हैं जो सांख्य के हैं लेकीन उनको कुछ - कुछ बदला गया है । सांख्य कहता है संसार की रचना प्रकृति - पुरुष के योग से है , यह बात गीता भी कहता है । सांख्य परमात्मा के होनें की बात नहीं करता जब की गीता मे

गीता मर्म - 35

सांख्य - योग गीता में सांख्य , ज्ञान , ये दो शब्द बार - बार आप को मिलेंगे , कुछ लोग सांख्य को ज्ञान कहते हैं , लेकीन यह सांख्य है क्या ? ईसा पूर्व लगभग 200 - 300 वर्ष , सांख्य साधना का एक मार्ग था लेकीन आज इसका नाम न के बराबर ही है । भारत के धर्माचार्य लोग जिसको मारना होता है उसकी पूजा करवानें लगते हैं । भागवत पुराण में कृष्ण के अवतार के रूपमें बुद्ध को देखा गया है और शिव पुराण में कहा गया है :----- स्वर्ग और नरक की रचना करनें के बाद प्रभु नरक की जिम्मेदारी यमराज को दिया । जब काफी समय तक नरक में कोई न पहुंचा तो एक दिन यमराज प्रभु के दरबार में उपास्थित हुए और प्रार्थना की :---- प्रभु हमारे पास अभी तक कोई एक भी न आया और स्वर्ग लोक भरा पडा है , मैं अकेले वहाँ क्या करू ? प्रभु बोले , आप चिंता न करें , कलियुग में बुद्ध नाम से मैं आउंगा , लोग मुझे बुद्ध के रूप में पुजेगे और सभी नरक में जायेंगे और आप का नरक हमेशा भरा रहेगा , चिंता करनें की कोई बात नहीं है । आप नें देखा ! बुद्ध को प्रभु तुल्य भी बना दिया और --------- भारत से सांख्य का सफाया कर दिया गया लेकीन गीता का सफाया करना कठिन था जबकि गी

गीता मर्म - 34

गीता से कुछ मणिओं को एकत्रित करें और बैठ कर मजा लें क्यों भागना इधर से उधर ॥ गीता की पांच मणियाँ , आपके लिए जो ------ अस्थिर मन ..... संदेहयुक्त बुद्धि .... खंडित स्मृति ..... मोह , और ......... अज्ञान का समीकरण देते हैं ॥ [क] सूत्र - 18.72 , 18.73 पहला श्लोक प्रभु का गीता में आखिरी श्लोक है जिसमें अर्जुन से पूंछ रहे हैं ..... अर्जुन ! क्या स्थिर मन से तूनें गीता सूना , क्या तेरा भ्रम दूर हुआ , क्या तेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हुआ ? श्लोक - 18.73 गीता में अर्जुन का अंतिम श्लोक है जिसमें अर्जुन कहते हैं ----- प्रभु आप की कृपा से मेरा अज्ञान समाप्त हो गया है , मैं अपनी खोई स्मृत वापिस पा ली है , मेरा मोह भी समाप्त हो गया है और अब मैं आप की शरण में हूँ ॥ [ख] सूत्र - 2.52 प्रभु कहते हैं ...... अर्जुन तूं युद्ध से भागनें की बात तो कर ना , क्योंकि ...... मोह के साथ बैराग्य नहीं मिलता ॥ [ग] सूत्र - 4.35, 10.3 प्रभु कहते हैं ...... ज्ञान से मोह का अंत होता है और परमात्मा के फैलाव रूप में यह संसार दिखनें लगता है और प्रभु मय वह हो उठता है ॥ आप और हम जो कर्म करते हैं उनके पीछे ----- राजस और तामस

गीता मर्म - 33

इन्द्रियाँ , द्वार हैं ------ गीता श्लोक - 5.13 में प्रभु अर्जुन से कहते हैं ....... हे अर्जुन ! वह, जिसके मन में कर्म करनें का भाव नहीं उठता , वह अपनें नौ द्वारों वाले शरीर रुपी महल में चैन से रहता है । पहले नौ द्वारों को देखते हैं ........ 2[आँख , कान , नाक ] + एक मुंह + एक गुदा + एक जननेंद्रिय , इन नौ द्वारों को आप समझें , मैं आगे चलता हूँ । क्या कोई राजा ऐसे किले में रहता हो जिसमें नौ द्वार हों और आनंद से रहता हो , क्या यह संभव है ? क्या आप कोई ऐसा किला देखे हैं जिसमें नौ द्वार हों ? दौलताबाद से दिल्ली तक , द्वारका से गंगा सागर तक, आप जाएँ और उस किले को खोंजे जिसमें नौ द्वार हों और उसमें रहनें वाला राजा परम आनंद में अपना जीवन जीया हो - यह आप के शोध का बिषय बन सकता है , ज़रा सोचना एकांत में । इन्द्रियाँ हमारे देह के द्वार हैं , जिनके माध्यम से हम संसार में कुछ खोजते रहते हैं , जीवन इस खोज में सरकता चला जाता है और वह मिलता है लाखों में किसी एक को वह भी सदियों बाद । प्रभु मार्ग देते हैं , उनको खोजना और उन पर चलाना तो हमें ही है । इन्द्रियों के माध्यम से हमें संसार जो प्रभु का ही फ

गीता मर्म - 32

अर्जुन के दर्द की दवा का नाम गीता है ------ अर्जुन अपनें सारथी श्री कृष्ण से कहते हैं ........ आप रथ को दोनों ओर की सेनाओं के मध्य ले चलें , मैं देखना चाहता हूँ की ----- कौन से लोग मेरी ओर से लडनें के लिए आये हैं और कौन से लोग मेरे बिपरीत हैं , अर्जुन की यह बात उसके अन्दर उठ रही दर्द की लहर है जो शब्दों के माध्यम से बाहर निकल रही है । प्रभु श्री कृष्ण को सब मालूम है , वे एक पल भी नहीं गवाना चाहते , तुरंत रथ को सही जगह ले जा कर खडा करते हैं । अर्जुन को किसको देखना था , वहाँ कौन पराया था , थे तो सभी अपनें ही , क्योंकि युद्ध एक घर के दो परिवारों में होने को है , सभी रिश्ते - नाते दार दोनों पक्ष के ही तो हैं । युद्ध में भाग लेनें वालों में ....... अति बुजुर्ग लोग हैं मध्य उम्र के लोग हैं गुरुजन हैं और ऐसे युवा बच्चे भी हैं जिनका अभी हाल में विवाह हुआ है । अर्जुन अपनें सूत्र -1.28 - 1.30 तक में जो छः बातें कही है जैसे ...... मेरा गला सूख रहा है शरीर में कम्पन हो रहा है त्वचा में जलन हो रही है , आदि , ये सब भय - मोह की पहचान हैं । श्री कृष्ण एक सिद्ध योगी के रूप में अर्जुन की भाव दशा को पहच

गीता मर्म - 31

गीता के दो सूत्र :------ [क] सूत्र - 7.11 रागरहित शास्त्र के अनुकूल , काम , मैं हूँ ॥ [ख] सूत्र - 10.28 संतान उत्पत्ति का कारण , कामदेव , मैं हूँ ॥ काम और काम देव , मैं हूँ , ऎसी बात श्री कृष्ण जैसा योगिराज ही कह सकता है । श्री कृष्ण की इन बातों को हम कुछ समझनें की कोशिश करते हैं , यद्यपि है कठिन , क्यों की :---- श्री कृष्ण की बातों को वह समझता है जिसमें उनकी ऊर्जा ऊर्जा बह रही हो , हम तो भोगी ब्यक्ति हैं । दरिया बहती है - ऊपर से नीचे की ओर और ऊर्जा बहती है अधिक बोल्टेज से कम बोल्टेज की ओर । तरल के बहाव के लिए स्लोप चाहिए और ऊर्जा - बहाव के लिए चाहिए - पोटेंसिअल डिफ़रेंस। ऊपर के सूत्रों में प्रभु कहते हैं -- काम और काम देव , मैं हूँ , यहाँ काम है ऊर्जा या दरिया के बहनें की ऊर्जा और कामदेव है स्लोप एवं पोटेंसिअल डिफ़रेंस । काम को जब काम देव मिलते हैं तब काम ऊर्जा दो दिशाओं में से किसी एक की ओर बह सकती है ; नीचे से ऊपर की ओर या ऊपर से नीचे की ओर । काम देव प्रकृति की चाह है अर्थात संतान उत्पत्ति के लिए काम ऊर्जा को ऊपर से नीचे की ओर बहानें का माध्यम और जब यह काम हो जाता है तब कामदेव शरी

गीता मर्म - 30

गीता का धृतराष्ट्र याद रखना हम गीता के धृतराष्ट्र को देख रहे हैं , किसी और धृतराष्ट्र को नहीं ॥ गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र के श्लोक से है और यह श्लोक धृतराष्ट्र का पहला एवं आखिरी श्लोक भी है । गीता महाभारत - युद्ध का द्वार है लेकीन इसका इस युद्ध से निमित्त मात्र सम्बन्ध है । गीता को जो महाभारत से जोड़ कर देखता है वह गीता के श्री कृष्ण से कभी नहीं मिल सकता । धृतराश्रा जी अपनें मित्र संजय से पूछते हैं - संजय वहाँ युद्ध स्थल में क्या चल रहा है , हमारे और पांडू - पुत्रों के मध्य ? धृतराष्ट्र जी बस इतना कह कर चुप रहते हैं , गीता का प्रारम्भ तो इस सूत्र से हो गयाऔर संजय के श्लोक से गीता का अंत भी होता है जिसमें संजय कहते हैं ....... राजन ! यह समझना की जहां श्री कृष्ण और अर्जुन की जोडी है , विजय भी उसी पक्ष की होगी । धृतराष्ट्र जी अंधे ब्यक्ति हैं , संजयजी उनकी मदद के लिए उनके पास हैं , उनके मित्र भी हैं और अभी युद्ध प्रारम्भ भी नही हुआ पर संजय जी युद्ध का परिणाम घोषित कर रहे हैं । अब आप सोचिये की धृतराष्ट्र इस बात को सुन कर कैसे चुप रहे होंगे ? गीता में चार पात्र हैं ; प्रभु श्री कृष्ण , अ