गीता चालक नहीं संचालक है

● गीता वैराग्यका द्वार खोलता है ●
 <> गीता एक संचालक है चालक नहीं ; 
संचालक ( operator ) उसे कहते हैं जो चलनें वाले और उन नियमोंको समझता है जो चलनें वालेको चला रहे हैं तथा चालक उसे कहते हैं जो चलाना तो जानता है लेकिन चलनें में जो नियम काम कर रहे होते हैं , उनके सम्बन्ध में अनभिज्ञ होता है ।अंगरेजी में दो शब्द है -operator एवं driver ; ओपरेटर संचालक केलिए और ड्राइवर चालक केलिए प्रयोग किया जाता है ।
 <> गीता कहता है - कर्म किये बिना कोई भी जीवधारी एक पल भी नहीं रह सकता चाहे वह देव हो , दानव हो , मनुष्य हो या फिर अन्य कोई जीव यह तो एक सूत्र है जो जीवोंके जीवनका चालक है लेकिन सभीं जीव एक जैसे तो नहीं । मनुष्यके पास वह उर्जा है जो उसे प्रश्नोंमें उलझा कर रखती है और एक पल चलता हुआ मनुष्य रुक जाता है ,सोचनें लगता है की बाएं चलूँ या दायें और यह उसकी स्थिति -ना या हाँ के मध्य की स्थिति होती है ।ना और हाँ के मध्य की स्थिति में जब मन - बुद्धि तंत्र होता है तब उसमें संदेह , भ्रम और समभाव इन तीन में से कोई एक उर्जा बह रही रही होती है । गीता कहता है , संदेह तामस गुण एवं कुछ कमजोर अहंकारके योग का तत्त्व है और भ्रम राजस गुण एवं मजबूत अहंकारके योगका तत्त्व है और दोनों अन्धकारमें लेजाते हैं ।समभाव सात्त्विक गुण और शून्य अहंकारका फल है जो वैराग्य - परा भक्ति में पहुँचाता है । 
 <> गीतासे जो भक्ति मिलती है उसका प्रारम्भ वैराग्य से होता है , साकार भक्तिका गीतासे कोइ सीधा सम्बन्ध नहीं , हाँ लेकिन साकार भक्ति गीता में पहुँचा सकती है ।
 <> गीता वैराग्यका द्वार खोलना सिखाता है और कोई भोगी वैरागी बननें को दिलसे तैयार नहीं अतः गीता एक मूर्ति बन कर रह गया है ।
 ~~ ॐ ~~

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