गीता अध्याय - 13 , भाग - 10

ब्रह्म , भाग - 02

गीता श्लोक - 13.15 , 13.16 

बहिः अन्तः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च 
सूक्ष्मत्वात् तत् अविज्ञेयम् दूरस्थं च अन्तिके च तत् 

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितं 
भूतभर्तृ च तत् ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च 

ये दो श्लोक ब्रह्म के सम्बन्ध में प्रभु श्री कृष्ण के हैं , श्लोक कह रहे हैं ------

वह सभीं चर - अचर भूतों के .....
अंदर , बाहर , दूर , समीप में स्थिति है ...
और 
 वह इतना सूक्ष्म है कि अविज्ञेय है //

वह अविभक्त है लेकिन सभीं भूतों के रूप में विभक्त सा भाषता है ....
वह जाननें योग्य है .....
वह सबका धारण - पोषण कर्ता है .....
वह रुद्ररूप में सब का संहार कर्ता है ....
वह सबको पैदा भी कर्ता है //

गीता में ब्रह्म , श्री कृष्ण , परमात्मा , ईश्वर , परमेश्वर , आत्मा एवं जीवात्मा तथा पुरुष के सम्बन्ध में लगभग 120 श्लोक हैं और मूल रूप में यदि देखा जाए तो ऐसा लगता है कि ये सभीं शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं /

पहला श्लोक  कह रहा है :

 वह सबके अंदर , बाहर सर्वत्र है अर्थात वह एक माध्यम है जिससे एवं जिसमें यह संसार है तथा जिससे एवं जिसमें संसार की सभी चर - अचर सूचनाएं हैं / इस श्लोक की दूसरी बात - वह इतना सूक्ष्म है  कि अविज्ञेय है अर्थात मनुष्य की इंद्रियों , मन एवं बुद्धि की पकड़ से परे है
 [ Brahman is beyond the human perception viz it can not be realized by senses , mind and intelligence mechanism ] 

गीता का दूसरा श्लोक कह रहा है :

वह अविभक्त है लेकिन नाना प्रकार की चर - अचर सूचनाओं को देखनें से ऐसा लगता है की जैसे  वह सबमें विभक्त सा हो / यहाँ विभक्त सा जो दिखता है यह है मनुष्य की इंद्रियों ,  मन एवं बुद्धि स्तर की सोच और अविभक्त सा है की सोच है ध्यान में मिली अनुभूति की सत्यता /
[ The Omnipresence of Brahman is a realization of meditation ]

ब्रह्म सर्वत्र ब्याप्त वह ऊर्जा है जिसमें वह रसायन एवं तत्त्व हैं जो जीव पैदा करते हैं लेकिन जीव पैदा करनें का वातावण प्रकृति निर्मित है / प्रकृति जब और जैसा वातावण पैदा करती है ब्रह्म के माध्यम से प्रभु वैसे - वैसे जीव पैदा करता है /


  •  जीवों का बीज प्रभु के अधीन है....
  •  जीव के बीज को धारण कर्ता ब्रह्म है....

 और


  •  जीव का गर्भ है प्रकृति 


==== ओम् ======

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