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Showing posts from 2013

गीता तत्त्व भाग - 2

● गीता तत्त्व - 2●  ° गीता श्लोक -2.2°   " कुतः त्वा कुश्मलम् इदं बिषमे समुपस्थितम् " ।  ** प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से पूछ रहे है , "असमय में तुमको यह मोह कैसे हो गया ?"  ** अब हम देखते हैं कि प्रभु कैसे समझ रहे हैं कि अर्जुन मोहके सम्मोहनमें है ?   ● गीता अध्याय - 1 में अर्जुन के 23 श्लोक हैं , प्रभु इस अध्याय में कुछ नहीं बोलते ,धृत राष्ट्र का एक श्लोक है और संजय के भी 23 श्लोक हैं । अर्जुन ऐसी कौन सी बात बोलते हैं जो प्रभुको संकेत देती हैं कि वह मोह सम्मोहन में उलझा हुआ है ?  * अर्जुन युद्ध -क्षेत्र में दोनों सेनाओं को आमनें-सामनें देख कर अपनें सारथी श्री कृष्ण को कह रहे हैं , हे कृष्ण ! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले चलें ,मैं दोनों तरफ ले लोगों को एक बार देखना चाहता हूँ ।  * प्रभु रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा करते हैं और अर्जुन अपनें ही कुल और सगे संबंधियों को देखते हैं और बोलते हैं :-- * मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं । * मेरा मुख सूख रहा है । * मुझे रोमांच हो रहा है । * मेरे शरीरमें कम्पन हो रहा है । * मेरी त्वचामें जलन हो रही ह...

गीता तत्त्व भाग - 01

● गीता तत्त्व -दो शब्द ●   * गीता मूलतः अर्जुन और प्रभु श्री कृष्णके संबादके रूप में  ज्ञान -विज्ञानका एक ऐसा रहस्य है जिसमें भोग कर्मको रूपांतरित करके उसे कर्म योगका रूप देनेंकी पूरी मनोवैज्ञानिक गणित दी गयी है ।  * गीतामें अर्जुन अपनें 16 प्रश्न 86 श्लोकोंके माध्यम से एक के बाद एक उठाते हैं और प्रभु उनके प्रश्नों के सम्बन्ध में अपनें 574 श्लोकों को बोलते हैं ।   * गीताका प्रारम्भ धृतराष्ट्रके श्लोक से है जिसमें वे अपनें सहयोगी संजयसे पूछ रहे हैं :---  " धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः ।  मामकाः पाण्डवा: च एव किम् अकुर्वत संजय ।।"  < भाषांतर >  " हे संजय ! धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्रमें मेरे और पाण्डु के पुत्रोंनें क्या किया ? "  * गीता के 700 श्लोको में धृतराष्ट्रका यह एक मात्र श्लोक है और इनके सहयोगी संजयके अपनें श्लोक 39 हैं ।  * गीता - ज्ञान , गीता के 660 श्लोकों ( अर्जुन के 86 श्लोक + प्रभु के 574 श्लोक ) में ही सीमित होना चाहिए लेकिन यदि 01 श्लोक धृतराष्ट्रका और 39 श्लोक संजयके गीता से निकाल दिए जाएँ त...

संसार रहस्य - 1

●संसार रहस्य - 1● ●● गास्पेलमें संत जोसेफ कहते हैं : सृष्टिका प्रारम्भ शब्द रूप प्रभु है और भागवतमें ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्ण भी यही बात कहते हैं और इसकी पूरी गणित देते ...

मूर्ति एक माध्यम

● मुर्तिके माध्यमसे ...  <> पिछले अंकमें आठ प्रकारकी मूर्तियोंको देखा गया जिनको भागवत दो भागों में देखता है ; एक चल मूर्ति होती है और दूसरी अचल ।  <> मुर्तिके माध्यमसे साधन करना अति सरल है और अति कठिन भी । साधना तन - मन का वह मार्ग है जो ब्रह्मके साथ एकत्व स्थापित करता है । ब्रह्मसे एकत्व स्थापित होना समाधि  है ,समाधि इन्द्रियों और मन -बुद्धिमें बह रही उर्जाके रुखको बदलती है। समाधि साधनाका फल है जहाँ साधक साकारका द्रष्टा - साक्षी होता है और इन्द्रियों ,मन -बुद्धिमें बह रही उर्जा निर्विकार होती है । समाधि वह द्वार है जिसके दरवाजे तक साकार की पहुँच होती है और जिसके अन्दर निराकार की अनुभूति । समाधिकी लोगोंनें परिभाषा बुद्धि स्तर पर बनाया है लेकिन उससे समाधि स्पष्ट नहीं होती । क्या विकल्प और क्या निर्विकल्प समाधि ,समाधि तो वह घडी है जब परम का द्वार खुलता है , साधक द्वार खुलना देखता है लेकिन क्षण भरमें वह समाधि में ऐसे खीच जाता है जैसे कोई ब्लैक होल किसी कोस्मिक बॉडी को खीच लेता है ।  * समाधिकी अनुभूति अब्यक्तातीत है उसे कोई आज तक ब्यक्त नहीं कर सके और जो...

मूर्तियोंके प्रकार

सन्दर्भ : भागवत : 11.27+12.20  <> मूर्तियाँ पूजा करनें की दृष्टि से 08 प्रकार की कही  गयी हैं :----- * पत्थर की * लकड़ी की * धातु की * मिटटी या चन्दन की * चित्रमयी * बालू या रेत की * मणि की * मन मयी ।  # इन मूर्तियों को दो भागों में विभक्त करते हैं ।  1- चल मूर्ति 2- अचल मूर्ति  1- चल मूर्ति :  ऐसी मूर्तियोंका प्रतिदिन आवाहन - विसर्जन करनें और न करनेंका विकल्प है ।  2- अचल मूर्ति : अचल मूर्तियोंका प्रति दिन आवाहन - विसर्जन नहीं करना  चाहिए ।  # बालू या रेतकी मूर्तिका प्रति दिन आवाहन - विसर्जन करना अनिवार्य है ।  # मिटटी , चन्दन , चित्र मयी मूर्तियोंको स्नान करना वर्जित है केवल मार्जन करना चाहिए ।  ~~~ ॐ ~~~

ब्रह्म और माया

● गीता ज्ञान-1● * पूरा ब्रह्माण्ड जो सीमारहित है जब रिक्त गो जाता है अर्थात जब इसमें जोई दृश्य नहीं रहता तब यह ब्रह्म होता है । * ब्रह्मसे ब्रह्ममें तीन गुणोंका एक माध्यम विकस...

कर्म से कृष्णमय कैसे हों ?

● कर्म से कृष्णमय कैसे हों ? 1- जो तुम्हारा कर्म है उसमें कर्म बंधनोंको समझो । 2- कर्म - बंधन वे तत्त्व हैं जो कर्म करनेंकी प्रेणना देते हैं । 3- कर्मका सम्बन्ध जबतक भोगसे हैं तबतक क...

प्रलय की तस्बीर

● प्रलयके प्रकार ● °° सन्दर्भ : भागवत : 3.11+ 11.4 + 12.4 °° ** प्रलय चार प्रकारकी हैं :--- 1- नैमित्तिक प्रलय : यह प्रलय 4.2 billion वर्षों के बाद होती है ।यह अवधि 1000 x ( चार युगोंकी अवधी ) के बराबर होती है ।इस प्रलय...

गीता और विज्ञान

● अपनीं स्थितिको समझो ●  " Human being is a part of the universe limited in time - space ."  Prof. Albert Einstein 1879 - 1955  प्रो. आइन्स्टीन अपना सारा जीवन लगा दिया प्रकृतिके उस नियमको समझनें में जो नियम इस ब्रह्माण्डको चला रहा है , आइन्स्टीनका वह नियम ही भगवान है । आइन्स्टीनके जीवनके 55साल (190 1-1955 तक) उस नियमकी खोजमें गुजरे लेकिन वह नियम न मिल सका। बुद्ध और महावीर 50 साल तक उस नियमको व्यक्त करनेंमें लगाये लेकिन ब्यक्त न कर पाए , तो आइये देखते हैं गीता और श्रीमद्भागवत पुराणके आधार पर उस परम सनातन नियम को ।  सन्दर्भ : भागवत सूत्र : 1.13+ 3 10+3.25+6.1 और गीता अध्याय - 13+15  ** काल ( time )के प्रभावमें प्राणसे भी वियोग होजाता है ।काल वह चक्र है जो प्रकृति की सूचनाओं को बनाता है , उनको अपनी ओर खीचता रहता है और अंततः उनको अपनें में समा लेता है । कालको समझनें केलिए विषयोंमें निरंतर हो रहे परिवर्तनको देखा जा सकता है ।  ** प्रभुसे प्रभुमें तीन गुणोंका एक माध्यम है जिसे माया  कहते हैं : इस बात को समझते हैं ।विज्ञान में टाइम -स्पेस (time -space ) है ...

राग - द्वेष

°° गीता - 3.34 °° इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य अर्थे रागद्वेषौ ब्यवस्थितौ । तयो : न वशं आगच्छेत् तौ हि अस्य परिपन्थनौ ।। " इन्द्रिय - बिषय राग - द्वेषकी उर्जासे परिपूर्ण हैं , इनका सम्...

मोह वैराज्ञ

● मोह - वैराज्ञ ● °° गीता - 2.52 °° यदा ते मोहकलिलं बुद्धिः ब्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतब्यस्य श्रुतस्य च ।। " जब तेरी बुद्धि मोह - दलदलसे बाहर होगी तब तुम सुनें हुए ...

गीता श्लोक - 6.1

●● गीता श्लोक - 6.1 ●● अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः सः संन्यासी च योगिः ................ " कर्मफल आश्रय रहित कर्म जो कर रहा है वह संन्यासी और योगी है " ** अर्जुन अध्याय - 5 के प्रारम्भ में...

●●तत्त्व ज्ञान ●●

●● तत्त्व ज्ञान ●● °1- लिंग शरीर क्या है ? स्थूल देह का पिंड , 05 कर्म इन्द्रियाँ और मन का योग , लिंग शरीर कहलाता है : भागवत - 11.22 °2- महत्तत्त्व क्या है ? 2.1> तीन गुणोंमें ( मायामें ) कालका प्रभा...

दुःख संयोग वियोगः योगः

●●दुःख संयोग वियोगः योगः●● गीतामें प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं --- " दुःख सयोग वियोगः इति योगः " ये श्री कृष्ण वही हैं जो 11 सालकी उम्र तक मथुरासे नन्द गाँव ,नन्द गाँवसे वृन्दावन ...

भागवतकी सृष्टि - प्रलय गणित

●● सृष्टि - प्रलय - सृष्टि ●● °° सन्दर्भ - भागवत :---- 2.5+3.5+3.6+3.25-3.27+11.24+11.25 * ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्णके सांख्य तत्त्व ज्ञानका सार :---- ^ माया पर कालका प्रभाव हुआ फलस्वरुप ^ 03 अहंकार उपजे > सात्त्व...

ध्यान और हम

इंद्रियों का स्वभाव है बिषयों में रमण करना  मन का स्वभाव है इंद्रियों पर भरोषा रखना  बुद्धि मन की भाषा को समझती है  और .. . इन सबको जो उर्जा चलाती है वह है तीन  गुणों की उर्जा  सात्विक , राजस और तामस तीन गुणों का माध्यम का नाम है माया  माया  से माया में यह संसार है  यह संसार मन का विलास है  और  इसके परे का आयाक ब्रह्म का आयाम है जहाँ मनुष्य संसार को ब्रह्म की छाया रूप में देखता है / मन - बुद्धि तंत्र की बृत्तयाँ हैं - जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति  जाग्रत स्थिति में इन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों की तलाश में होती हैं  और   इद्रिय - बिषय संयोग भोग है / स्वप्न में ह्रदय जाग्रत अवस्था के अनुभव को प्राप्त करता है और  सुषुप्ति में इन दोनों के अनुभव की लहरें दिखती हैं  जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति , इनमें गुण कर्ता होते हैं  और  प्रभु की अनुभूति गुणातीत की स्थिति में ही संभव है   फिर क्या करें ? ध्यानका अभ्यास जब गहरा हो जाता है तब इन तीन आयामों से अलग एक और आयाम उठता  ...

ज्ञान - विज्ञान

ज्ञान - विज्ञान श्रीमद्भागवत और गीता के आधार पर ज्ञान और विज्ञान की परिभाषा कुछ इस प्रकार से बनती है : * गीता कहता है : क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है । * भागवत कहता है : शुद्...

भागवत स्कन्ध तीन ध्यान - सूत्र

Title :भागवत स्कन्ध तीन ( ध्यानसुत्र ) Content: भागवत स्कन्ध - 03 (ध्यानसुत्र) 1- द्रष्टा - दृश्य का अनुसंधान - उर्जा का नाम माया है 2- संसार में दो प्रकार के लोग सुखी हैं - एक बुद्धिहीन और एक स्थिर ब...

गीता अध्याय - 02

Title :गीता अध्याय - 02 Content: >>गीता अध्याय - 02 72 --------------------------- * 2.1> संजय : करुणा में डूबे , ब्याकुल अर्जिन से प्रभु यह बात कही :--- * 2.2,2.3 > प्रभु :यह असमय में मोह कैसा , जो आर्य पुरुषों द्वारा न आचरित है , न स्वर्ग की ओर ले जाने वाला है और न कीर्ति दिला सकता है अतः ह्रदय की दुर्बलता त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जा । * 2.4 > अर्जुन : भीष्म एवं द्रोणाचार्य के खिलाफ कैसे लडूं , दोनों पूजनीय हैं (सूत्र-1.25अर्जुन का रथ इन दोनों के सामने ही खड़ा है ) । *2.5 > महानुभाव ! गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन करना उत्तम समझता हूँ । गुरुओ को मार कर उनके खून से सने भोग को ही तो भोगना होगा । *2.6 > मुझे कुछ पाया नहीं चल रहा की युद्ध करू या न करू , इन दो में कौन उत्तम है , कौन जीतेगा और कौन हारेगा , कुछ पता नहीं चल पा रहा , धृत राष्ट्र के पुत्रों को मार कर मैं जीना भी नहीं चाहता । * 2.7 > अर्जुन : मेरा चित्त घोर सम्मोहन में है , मैं युद्ध कैसे करू, मैं आपका शिष्य - मित्र हूँ , आप मुझे उचित शिक्षा दें । *2.8...

सांख्य योग से सत्य की ओर

भारत में हमारे बुद्धिजीवी [ ऋषि - मुनि ] उसकी तलाश के नये - नये मार्ग तलाशे जिसे आज के कण वैज्ञानिक प्रयोग शाला में तलाश रहे हैं / भारत प्रभु को केन्द्र मान  कर मनुष्यों की दो श्रेणियाँ बनायी - आस्तिक और नास्तिक / आस्तिक श्रेणी में ऐसे लोग आते हैं जो ब्रह्माण्ड के होनें और ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं के होनें का कारण एक शक्ति को मानते हैं जिसे परमात्मा कहते हैं /नास्तिक वर्ग के लोगों में परमात्मा के होनें की सोच नहीं होती , उनकी सोच ठीक वैसी होती है जैसी सोच आज के वैज्ञानिकों की है / वैज्ञानिक समुदाय पिछले तीन सौ साल से दो भागों में बता हुआ दिखता है ; एक वर्ग परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है लेकिन उसे कर्ता रूप में न देख कर एक नियम के रूप में देखता है जैसे आइन्स्टाइन और दूसरा वर्ग पूर्ण रूपेण नास्तिक वर्ग है / आस्तिक वर्ग में न्याय , सांख्य , वैशेषिक , योग , पूर्व मिमांस , वेदान्त - ये 06 मार्ग विकशित हुए लेकिन धीरे - धीरे इनमें बदलाव आता गया / न्याय और सांख्य दोनों मार्गों को मिला दिया गया और सांख्य भी धीरे - धीरे लुप्त होता चला गया / भागवत की रचना द्वापर के अंत की है , ...