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Showing posts from December, 2010

गीता की यात्रा

भाग - 05 ध्यान निर्वाण का मार्ग है क्या है , ध्यान ? ध्यान वह है जो ----- इस संसार में एक और संसार दिखाए ......... स्वयं से मिलाये ....... प्रकृति - पुरुष के रहस्य को स्पष्ट रूप से दिखाए ..... और यह दिखाए की :::::::::::: देख ! यह सत्य है और यह असत है और ....... दोनों जिस से हैं वह है ----- परम सत्य ॥ क्या ऐसा किसी के साथ होता भी होगा या यों ही एक कल्पना सा है ? यह होता है और आप के साथ भी हो सकता है , ज़रा आप सोचना इस बात पर ======== आप BMW CAR में बैठ कर गुरुद्वारे गुरु नानकजी के बचनों को सुननें जाते हैं , क्या कभी आप के अन्दर ऐसा भी विचार आया की ======= यदि आप गुरुद्वारे में बैठे - बैठे नानकजी साहिब बन गए तो आप की कार का क्या होगा ? जिस दिन ऐसा विचार आप के अन्दर प्रवेश करेगा उस दिन आप गुरुद्वारा जाना तो बंद कर ही देंगे , लेकीन आप बच नहीं पायेंगे , भूल जायेंगे इस कार को , इस संसार को और इस संसार में जो आप को दिखनें लगेगा , वह कुछ और ही होगा जिसको .... ग्रन्थ साहिब ---- गीता ..... उपनिषद् ..... कहते हैं ..... परम सत्य ॥ कबीरजी साहिब को हम सुनते हैं नानकजी साहिब को हम लोग सुनते हैं मी...

गीता की यात्रा

भाग - 04 ज्ञान मोह की दवा है --- गीता - 4.34 , 4.35 प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं : जा तूं किसी सत गुरु की शरण में , वहाँ जो ज्ञान तेरे को मिलेगा वह तेरा मोह दूर करेगा ॥ जैसा मरीज , वैसा चिकित्सक : गीता - अध्याय तीन के प्रारम्भ में अर्जुन का दूसरा प्रश्न है ---- हे प्रभु ! जब ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझको इस युद्ध - कर्म में क्यों उतारना चाहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में केवल कर्म की बात प्रभु करते हैं और तीसरी अध्याय के अंत में अगले प्रश्न के उत्तर में काम की चर्चा करते हैं , वहाँ ज्ञान के नाम पर प्रभु लगभग चुप सा रहते हैं लेकीन गीता श्लोक - 4.34 से 4.42 तक में प्रभु कहते हैं ----- तेरा मोह दूर हो सकता है , लेकीन तेरे को किसी सत गुरु की तलाश करनी पड़ेगी । तेरा संदेह तेरे अज्ञान का फल है और अज्ञान ज्ञान से दूर होता है । ज्ञान योग सिद्धि पर मिलता है ॥ प्रभु ऐसा नहीं करते जैसा हम -आप करते हैं ; बेटा / बेटी यदि दुखी हैं तो उनको तीन पहिये वाली बनी बनायी सायकिल ला देते हैं और बेटा / बेटी को क्षणिक सुख मिल जाता है और हम भी खुश हो लेते हैं । प्रभु अर्जुन के संदेह को कम नहीं करना चाहते ,...

गीता की यात्रा

भाग - 03 कर्म के माध्यम से ....... बहुत से नाम हैं ----- कोई क्रिया - योग कहता है ..... कोई कर्म - योग कहता है .... कोई समभाव - योग कहता है .... लेकीन नाम से क्या होगा ? होनें से होता है ॥ कर्म के बिना एक पल के लिए भी कोई जीव धारी नहीं रह सकता । कर्म के लिए मृत्यु - लोक में आना होता है , अन्यथा यहाँ क्या कुछ और है जिसके लिए बार - बार आना पड़ता है । कर्म जबतक कामना से साथ है .... तबतक हम भ्रमित हैं .... और जिस घड़ी कर्म और कामना का रुख एक दूसरे के बिपरीत हो जाता है , समझो अब और अधिक दूर नहीं चलना पड़ेगा , परम धाम आप की ओर खुद चल कर आ रहा है । कामना और कर्म के संग को समझनें के लिए ही तो यहाँ हम सब का आना होता है लेकीन ..... यह बात हम गर्भ से बाहर आते -आते भूल जाते हैं । गीता कहता है : जबतक काम - कामना जबतक क्रोध - लोभ जबतक अहंकार - मैं जबतक मोह - भय .... का प्रभाव मन - बुद्धि पर है ---- प्रभु को भूले हो और ...... रोजाना मंदिर जाते हो प्रभु के लिए नहीं ..... अपनें लिए ॥ जब ..... गुण तत्वों का प्रभाव मन - बुद्धि पर नहीं होता ...... तब .... आप को मंदिर नहीं जाना पड़ता ..... प्रभु खुद आते है...

गीता की यात्रा

भाग - 02 पिछले अंक में प्रभु की ओर रुख करनें के लिए स्थूल रूप में पांच बातें बतायी गयी अब हम यहाँ उन बातों में भक्ति को यहाँ ले रहे हैं ॥ भक्ति क्या है ? क्या गायत्री मंत्र का सुबह - सुबह स्नान कर के जप करना भक्ति है ? क्या सुबह गुरुद्वारे में पहुंचना भक्ति है ? क्या सुबह - सुबह शिव मंदिर में बेल पत्र चढ़ाना भक्ति है ? क्या देव स्थान - तीर्थ की यात्रा में भक्ति है ? क्या चाह की ऊर्जा से मंदिर जाना भक्ति है ? क्या द्वेष - ऊर्जा से मंदिर जाना भक्ति है ? भक्ति शब्द तो रहेगा लेकीन भक्ति की हवा वहाँ नही होती जहां ---- मन में राग हो ..... मन में संदेह हो .... मन में क्रोध हो .... मन में द्वेष भरा हो ..... मन में मोह हो ..... मन में कामना का निवास हो .... मन में लोभ हो ..... मन में अहंकार का डेरा हो ..... भक्ति है वहाँ , जहां ------ न तन हो ..... न मन हो .... बुद्धि हो , प्रभु पर स्थिर और ... रात - दिन एक पर नज़र टिकी हो .... इन्द्रियाँ साक्षी भाव में डूबी हों ..... राह - राह कर ह्रदय में एक लहर उठती हो जो ---- उस पार की एक झलक दिखलाती हो ..... जहां दो नहीं ; भक्त और भगवान् नहीं , मात्र .....

गीता की यात्रा ------

भाग - 01 प्रभु अर्जुन से कहते हैं :-------- अर्जुन ! मुझको समझनें के दो मार्ग हैं - कर्म और ज्ञान ॥ कर्म , ध्यान , तप , भक्ति और ज्ञान - पांच मार्गों के लोग यहाँ देखे जाते हैं , वैसे और भी कई मार्ग हैं प्रभु की ओर रुख करनें के । मार्ग एक राह है जो सीधे आगे की ओर ले कर चलता चला जाता है लेकीन ज्यादातर लोग सीधे नहीं चल पाते , उनको एक चौराहा पर ही घूमनें में मजा आता है और वह चौराहा होता है ---- भोग का ॥ गुणों की जाल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुयी है ; इस से वही बच पाता है जो गुनातीत हो जाता है और ...... गुनातीत मात्र एक प्रभु हैं और न दूजा , कोई ...... । वह जो कर्म के माध्यम से ...... वह जो ध्यान के माध्यम से ... वह जो तप के माध्यमसे ..... या वह जो किसी और माध्यम से , मायामुक्त हो जाता है , वह प्रभु तुल्य योगी सीधे परम धाम में निवास करता है । जब तक ...... योगी को यह मालूम रहता है की वह कुछ कर रहा है जो सिद्धि दिलानें वाला है , तबतक वह योगी गुमराह रहता है , उसकी यात्रा रुक गयी होती है और .... जब छोटे बच्चे की भांति अबोध अवस्था जैसी स्थिति में पहुंचता है अर्थात ...... लोग समझते हैं यह...

इसे समझो

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहे हैं : गुण कर्म करता हैं , करता भाव अहंकार की छाया है ॥ गुण स्वभाव का निर्माण करते हैं , स्वभाव में कर्म करनें की उर्जा होती है ॥ गीता यह भी कहता है : कर्म में कर्म तत्वों की पहचान , मनुष्य को भोगी से योगी बना देती है ॥ कर्म - तत्वों की जब पकड समाप्त हो जाती है और ..... कर्म ---- बिना कामना ..... बिना क्रोध ..... बिना लोभ ..... बिना मोह ..... बिना भय ..... बिना आलस्य , और बिना अहंकार के प्रभाव में पहले की भाँती होते रहते हैं , तब ..... वह कर्म कर्म - योगी के रूप में होता है और ..... उसके पीठ पीछे भोग और आँखों में प्रभु का निवास होता है ॥ गीता के एक -एक सूत्रों की ऊर्जा में ..... आत्मा के रूप में प्रभु को देखो ॥ आज आप को प्रभु का प्रसाद मिल गया है .... कल की बात कौन जानता है ॥ ==== ॐ =====

इसे भी देखो

गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न है [ गीता श्लोक - 2.54 ] स्थिर प्रज्ञयोगी की पहचान क्या है ? और दूसरा प्रश्न है [ गीता श्लोक - 14.21 ] गुणातीत - योगी की पहचान क्या है और कोई कैसे गुणातीत बन सकता है ? पहले प्रश्न के सन्दर्भ में प्रभु अध्याय - 02 में चौदह श्लोकों के माध्यम से स्थिर प्रज्ञ को स्पष्ट करते हैं और दुसरे प्रश्न के सन्दर्भ में प्रभु 50 श्लोकों को बोलते हैं [ 14.22 से 16.24 तक ] आइये ! मैं आप को इन दो प्रश्नों के सन्दर्भ में प्रभु द्वारा बोले गए 64 श्लोकों के सारांश को दिखाता हूँ ॥ भोग से योग में उतरना ------ योग में स्थिर प्रज्ञता में बसेरा करना ---- धीरे - धीरे यहाँ से बैराग्य की जड को मजबूत करना ---- और तब वह योगी का बैराग्य - अवस्था में उस आयाम में प्रवेश करता है ....... जो आयाम है ---- गुणातीत का ॥ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ..... प्रभु एक मात्र गुणातीत है और .... गुणातीत - गीता योगी पल - दो पल में ही ... परम गति में प्रवेश पा जाता है ॥ क्या आप हैं तैयार , इस यात्रा के लिए ? आज इतना ही .... आज प्रभु श्री कृष्ण आप को सत - बुद्धि में स्थिर रखें ॥ ==== ॐ ====

इनको भी जानो

मन - बुद्धि बुद्धि - प्रज्ञा प्रज्ञा - चेतना चेतना - आत्मा को समझो ॥ आगे चल कर हमें स्थिर प्रज्ञ को समझना है और यह तब संभव है ...... जब हमें मन से आत्मा तक के तत्वों की अच्छी समझ हो ॥ मन , पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्म - इन्द्रियों का जोड़ है ; मन अपनी सुबिधा के लिए इन्द्रियों का नेट - वर्क सम्पूर्ण देह में बिछा रखा है ॥ मन के ऊपर है - बुद्धि जो एक तरफ मन से और ऊपर की ओर प्रज्ञा से जुड़ी होती है । मन और बुद्धि तक गुणों का प्रभाव होता है और मनुष्य प्रभु में रूचि न लेकर भोग में बसना चाहता है । गीता श्लोक - 6.27 में प्रभु कहते हैं ------ राजस गुण के सात मेरी ओर रुख करना असंभव है ॥ बुद्धि के ऊपर होती है प्रज्ञा , प्रज्ञा एक अति सूक्ष्म झिल्ली है जो बुद्धि और चेतना को जोडती है । प्रज्ञा को हम इस प्रकार से समझ सकते हैं ....... जब बुद्धि पर गुण - तत्वों का असर नहीं होता उस समय वह बुद्धि प्रज्ञा हो जाती है । प्रज्ञा वह माध्यम है जो जीवन ऊर्जा जो उसे आत्मा के माध्यम से मिलती है , उसे वह बुद्धि के माध्यम से मन तक पहुंचाती है और ...... आत्मा प्रभु को अलग - अलग नहीं देखा जा सकता । गीता श्लोक -...

गीता श्लोक - 13.18

सभी प्रकाश उत्पन्न करनें वाली सूचनाओं में प्रकाश पैदा करनें की ऊर्जा ------ अन्धकार से परे -------- अगोचर ------- ज्ञान ....... ज्ञेय ...... एवं .... ज्ञान के लक्ष्य .... सब के ह्रदय में बसे हुए , जो हैं , उनको हम प्रभु के नाम से जानते हैं ॥ He is light of lights , he is said to be beyond darkness , He is knowledge , the object of knowlegde , and goal of knowledge . He is seated in the hearts of all beings . लगाइए अपनी बुद्धि इस सूत्र पर , देखते हैं आप यहाँ की गीता कैसे गागर में सागर भर रहा है ? गीता कह रहा है ---- ज्ञान , ज्ञेय और ज्ञान के लक्ष्य रूप में प्रभु हैं , अर्थात ..... ज्ञान वह है जो प्रभु से पहचान कराये , तभी तो गीता सूत्र - 4.38 कहता है ----- योग सिद्धि से ज्ञान मिलता है ॥ आज इतना ही ---- गीता को अपना कर ...... अपनें को निर्मल करते रहें ..... ==== ॐ =====

गीता श्लोक - 4.10

वीत राग भय क्रोधा : मन्मया मामुपाश्रिता : । बहवो ज्ञान तपसा पूता मद्भावमागता : ॥ राग , भय और क्रोध मुक्त योगी प्रभु की शरण में ज्ञान माध्यम से प्रभु के दिब्य प्रेम को प्राप्त करते हैं । भावार्थ : राग , भय और क्रोध प्रभु मार्ग में घातक अवरोध हैं ॥ delivered from passion and dullness , natural modes such as ..... attachment , passion , fear and anger , absorved in Me , taking refuse in Me , many purified by the austerity of wisdom , have attained to My state of being . what is My state of being ? see gita - 2।42 , 2.43 , 244 and gita 12.3 , 12.4 , read these five shlokas atleast five times and then you will be reaching to this conclusion that ...... the awareness of He - the Supreme One , is that which comes when ..... during meditation , a meditator touches the core of the consciousness . it is very clear understanding as given by the gita that ..... through regular meditation one has to purify his mind and then .... when an absolute pure cosmos enery starts flowing through mind a...

गीता श्लोक - 18.2

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु : । सर्व कर्म फल त्यागं प्राहु : त्यागं विचक्षणा : ॥ कर्म में कामना का न होना , योगी की पहचान है ..... और ---- कर्म में फल की सोच की अनुपस्थिति को ..... कर्म फल का त्याग कहते हैं ॥ action without desire makes one yogin ........ and ---- when there is no expectation of result ..... it is called ..... renunciation of ---- action - fruitation . गीत संन्यासी की यदि आप को तलाश हो तो आप गीता के एक - एक सूत्र की गंभीरता को अपनें जेहन में बैठाते जाइए और ....... एक दिन आप को गीता - योगी की तलाश नहीं करनी पड़ेगी , क्योंकि ...... आप स्वयं गीता - योगी हो गए होंगे ॥ ==== ॐ =====

गीता श्लोक - 14.5

भाग - 01 सत्त्वं रज : तम : इति ---- गुणाः प्रकृति संभवा : । निवध्यंती महाबाहो ---- देहे देहिनं अब्ययम ॥ आइये ! चलते हैं इस श्लोक की यात्रा पर ......... प्रभु गीता अध्याय - 14 में गुण विज्ञान की परम बातों को बताते हुए कहते हैं ----- हे अर्जुन ! इस देह में आत्मा को जोड़ कर रखनें का काम तीन गुण करते हैं । तीन गुण माया से माया में प्रभु के कारण हैं जबकि ..... प्रभु ...... गुनातीत है ----- मायापति होते हुए भी माया से अछूता है ॥ अब श्लोक का भावार्थ तो हुआ समाप्त लेकीन सोच का हो रहा है - प्रारम्भ , कुछ इस प्रकार से ------ गीता बनाना चाहता है ---- गुनातीत ..... मायातीत .... भावातीत और यह भी कह रहा है [ सूत्र - 15.4 में ] की ---- तीन गुण यदि नहीं तो आत्मा देह को छू मंतर कर जाएगा क्योंकि ----- तीन गुण देह में आत्मा को जोडनें का काम करते हैं अरथात जोड़ का माध्यम हैं - तीन गुण ॥ गीता इस बात पर चुप है की ----- जब कोई योगी गुनातीत हो जाता हैतब उसका आत्मा कितनें समय तक उसके देह में रह सकता है ? लेकीन इस सम्बन्ध में ----- परंहंस श्री राम कृष्ण कहते है की ------ मायामुक्त योगी का आत्मा उसके देह के सा...

गीता श्लोक - 2.46

यावान अर्थ : उद - पानें सर्वत : संप्लुत - उदके । तावान सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत : ॥ प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं :------ अर्जुन गीता - योगी वह है जिसका सम्बन्ध वेदों से नाममात्र का रह जाता है ; इस बात हो कुछ इस प्रकार से समझना उचित होगा ------ जैसे यदि किसी को विशाल जलाशय मिल जाए तो उसका सम्बन्ध एक छोटे से कूएं से कैसा होगा , ठीक इसी तरह ..... गीता - योगी और वेदों का सम्बन्ध होता है ॥ [ what would be the importance of a small pond in a place which is fully flooded with clean water , so is the relationship of ..... a gita - yogin with vedas । ] vedas are in favour of threefold natural modes [ gunas ] and ..... it says :------- beyond mind and intelligence , there is an absolute space where ..... one passes throgh the ..... absolute realty [ truth ] of the cosmos . modes are nothing but the forces who pull in bhoga and do not allow to enter in the ..... beautitude of the .... ultimate truth . आज इतना ही ..... ==== ॐ ======

गीता श्लोक - 2.45

त्रैगुन्य विषया वेदा निस्त्रे गुण्य: भाव अर्जुन । निर्द्वंदो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान ॥ वेद तीन गुणों एवं उनके तहत कर्मों का गुणगान करते हैं लेकीन हे अर्जुन ! तूं इन गुणों के सम्मोहन से परे निकल और तब ..... तूं जो देखेगा ----- वह होगा परम सत्य ॥ यहाँ तीन शब्दों को आप अपने ध्यान का माध्यम बनाएं और वे हैं ----- [क] नित्यसत्त्व [ख] योगक्षेम [ग] आत्मवान पहले शब्द में आप सात्विक गुण को न खोजें क्यों की सात्विक गुण भी एक बंधन ही है जिसको भी पार करना ही गीता - साधना है । योगक्षेम का अर्थ है ---- acquisition of the new and preservation of the old . और .... आत्मवान का अर्थ है ----- to understand whom am i ? आज इतना ही ..... ==== ॐ ====

Gita Sutra - 2.16

नासतो विद्यते भाव: नाभाव: विद्यते सत: । उभयोरपि दृष्ट: अंत: तु अनयो: तत्त्व दर्शिभ: ॥ Dr. Radhakrishnan, sarvpalli says :----- Of the non - existent there is no coming to be ; of the existent there is no ceasing to be . The conclusion about these two has been perceived by the tatvavittu [ man of wisdom ] . aadi guru shankaaraachaarya says ------- real as that in regard to which our consciousness never fails and unreal as that in regard to which our consciousness fails . ramanujaachaarya says ----- the unreal is our body and in it the soul is the real . maadhavaachaaryaa says ----- sat [true ] and asat [ untrue ] these are indications of the presence of nature in duality . यह श्लोक कहता है ----- सत का कोई अभाव नहीं और असत तो एक मन आधारित कल्पना है ॥ अब आप मेरी छोटी सी राय इस सूत्र के सम्बन्ध में देख सकते हैं ....... सत भावातीत है और भाव भरा असत है ॥ यहाँ आप गीता का श्लोक -7.12 को देखिये तब ऊपर के सूत्र का भावार्थ स्वतः स्पष्ट हो सकेगा ..... प्रभु कहते हैं ..... तीन गुण और उनके भाव म...

गीता सूत्र - 15.10

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुन्जानाम वा गुनान्वितं । विमूढा नानुपश्यति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषः शरीर त्यागनें एवं भोगों का द्रष्टा - ज्ञानी होता है ॥ the man of knowledge [ wisdom ] is a witnesser of ........ [a] his own soul leaving his body , and ..... [b] actions of his own senses and mind my intention is not to create any short of doubt in gita,s shlokas . my intention is to give the simpliest explaination which could easily be understood . i donot wish , many people to see my blog , i shall be happy to meet a man whose every heart pulsation has the gita - rhythem . ===== ॐ =====

गीता श्लोक - 15.8

शरीरं यत अवाप्नोति यत च अपि उत्क्रामति ईश्वरः । गृहीत्वा एतानि संयति वायु : गंधाम इव आशयात ॥ शरीर त्याग कर आत्मा जब गमन करता है तब ..... उसके साथ ---- मन और इन्द्रियाँ भी होते हैं ॥ When spirit leaves the physical body after its death , it carries ..... mind and the ..... senses . गीता के श्लोक ऐसे हैं जैसे एंटी बायटिक के कैप्सूल जिसको डिकोड करना ही ...... गीता - योग है या जिसको .... बुद्धि - योग कहते हैं ॥ मन वह है जिसके फैलाव के रूप में दस इन्द्रियाँ हैं । मन के औजार हैं , इन्द्रियाँ और धीरे - धीरे यही इन्द्रियाँ मन को अपना गुलाम बना लेती हैं । मन हमारे देह में ऐसे है जैसे ----- हवाई जहाज़ों में ब्लैक बोक्स होता है । सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक का लेखा - जोखा मन में होता है और ....... आत्मा को देह छोडनें के समय ये सूचनाएं अगले जन्म के लिए नियंत्रित करती हैं । ==== ॐ ======

गीता श्लोक - 8.6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजेती अन्ते कलेवरम । तं तं एव एती कौन्तेय सदा तत भाव भावितः आखिरी श्वाश भरते समय तक का गहरा भाव जो जीवन का केंद्र रहा होता है , आत्मा को अपनी इच्छा के अनुकूल यथा उचित शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करता है ॥ The deep thaught which has been the centre of one,s life , compels the atman to search a body of its choice when the present body does not have energy to carry the atman further .. गीता यहाँ यह बता रहा है ------- मनुष्य का मन [ अर्थात विचार ] आत्मा को कैसे नचाता है जबकि ...... आत्मा देह में प्रभु है ॥ मनुष्य की सोच क्या है ? जो इस जीवन को ही नहीं अपितु अगले जीवन को भी अपनें बश में रखता है लेकीन ....... मन में कैसे विचार धारण करनें चाहिए और कैसे विचारों को नहीं धारण करना चाहिए , कौन सोचता है ? आज से ..... अभी से .... इसी घड़ी से ..... यदि हमें , अपनें वर्तान जीवन को आनंद से भरना है और ..... अगला जीवन कैसा हो की समझ जगानी हो तो ..... अपनें मन की हर पल की चाल को देखना पड़ेगा ॥ क्या आप तैयार हैं ? क्यों चारों ओर सन्नाटा छा गया , क्या ऐसा कोई नहीं चाहता ? ==== ॐ =...

गीता श्लोक - 8.22

पुरुष: स परः पार्थ भक्या लभ्य: तु अनन्यया । यस्य अन्तः स्थानि भूतानि येन सरबं इदं ततं ॥ अनन्य भक्ति से प्राप्त योग्य प्रभु अपनें परम धाम में विराजमान होते हुए भी सर्वत्र होते हैं ॥ The experiencing gained during unswerving devotion is the awareness of the presence of Me . Me is not limited to a parson or place but is always available everywhere where Mine para bhakt is available . अनन्य भक्ति या परा भक्ति क्या है ? अनन्य या परा भक्ति साकार भक्ति का वह आखिरी अनुभूति है जिस को ब्यक्त करनें के कोई माध्यम नहीं होते और भक्त इस स्थिति में पूर्ण चेतनमय होता है । हमारे पास ब्यक्त करनें के माध्यम रूप में हैं - इन्द्रियाँ जिनका सीधा सम्बन्ध है - मन - बुद्धि तंत्र से । आप अपनें जीवन में कभी झाँक कर देखना - आप की अनेक ऐसे अनुभूतियाँ होंगी जिनको घटित होते हुए अनुभव का पता तो होगा लेकीन यदि आप उसे ब्यक्त करना चाहे तो नहीं कर पाते । हमारे पास ब्यक्त करनें के दो माध्यम हैं ; एक भाषा और दूसरा भाव । भाषा हमारी अपनी निर्मित है जिसकी अपनी सीमाएं हैं और भाव का अर्थ ही होता है - वह जिसको ब्यक्त न किया ज...

गीता श्लोक - 8.21

अब्यक्त: अक्षरं इति उक्त: तं आहु : परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तत्धाम परमं मम ॥ 8.21 परम गति में अब्यक्त अक्षर की अनुभूति ही का दूसरा नाम है - परम धाम ॥ अब हम देखते हैं इस श्लोक को ------ परम का अर्थ है - जिसके आगे कुछ और न हो ॥ गति का अर्थ है वह जो मिलनें वाला है ॥ अब्यक्त का अर्थ है - वह जिसको ब्यक्त न किया जा सके लेकीन वह हो ॥ परमधाम वह माध्यम है जिसका उर्जा क्षेत्र परम ऊर्जा का क्षेत्र हो अर्थात ...... वह क्षेत्र जिसके कण - कण में प्रभु बसता हो ॥ प्रभु मय योगी जब अपनें शरीर को त्यागता है तब वह ...... यह देखता है की उसका आत्मा कैसे देह को त्याग रहा है । वह अपनी आगे की यात्रा में भी होश मय होता है और निराकार में होशके साथ जो यात्रा होती है , वह है परम गति की यात्रा । इस यात्रा में सनातन की अनुभूति को परम धाम कहते हैं और इस स्थिति में मनुष्य आवागमन से मुक्त हो कर प्रभु में समा जाता है । आवागमन से मुक्त होना क्या है ? आत्मा और प्रभु के फ्यूजन को कहते हैं परम धाम की प्राप्ति और आवागमन से मुक्त होना । जब बूँद समुद्र में समा जाती है तब उस घटना को कहते हैं आवागमन से मुक्त हो...