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Showing posts from October, 2010

गीता सन्देश - 13

आसक्ति एक माध्यम है , प्रभु में रहनें का गीता सन्देश के माध्यम से हम भोग - तत्वों [ गुण - तत्वों ] को देख रहे हैं , और आज हम ...... आसक्ति में गीता के कुछ और सूत्रों को देखते हैं ॥ [क] सूत्र - 2.56 प्रभु कहते हैं ---- आसक्ति , क्रोध और भय रहित स्थिर प्रज्ञ होता है ॥ [ख] सूत्र - 4.10 यहाँ प्रभु कह रहे हैं ..... राग , भय , क्रोध रहित ब्यक्ति ज्ञानी होता है जो हर पल मुझमें रहता है ॥ [ग] सूत्र - 5.11 आसक्ति रहित स्थिति में पहुंचा योगी तन , मन औत बुद्धि से जो करता है , उस से वह और निर्मल होता है ॥ आसक्ति वह पहला सूत्र है जो पतंग की डोर जैसा है , जिसकी अनुपस्थिति ज्ञान योग में पहुंचा कर परम आनंद के रस में डुबोती है और जिसकी उपस्थिति ....... भोग से भोग में रख कर सम्मोहित किये हुए प्रभु से दूर रखती है ॥ जिसकी डोर टूट गयी , वह पहुँच गया उस आयाम में जिसको शब्दों में ढालना कठीन सा है पर जिसमें रहना किसी - किसी को युगों के बाद प्रभु प्रसाद रूप में मिलता है ॥ आप भी इस प्रसाद को ग्रहण कर सकते हैं , बशर्ते ..... अपनें को गीता में रखें ॥ ===== ॐ =====

गीता सन्देश - 12

आसक्ति में हम गीता के तीन और सूत्रों को देखते हैं :----- [क] सूत्र - 5.10 अनासक्त योगी भोग में कमलवत रहता है ॥ [ख] सूत्र - 18.49 आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है ॥ [ग] सूत्र - 18.50 नैष्कर्म की सिद्धि ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ॥ गीता का साधना के सम्बन्ध में निचोड़ है ----- गीता सूत्र - 4.38 प्रभु कहते हैं ...... सभी मार्ग मेरे में समाते हैं , जो उचित समझो उसे अपनाओ लेकीन ------ इतना सोचके साधना में उतरना की ...... सभी मार्ग जहां मिलते हैं , उसका नाम है - ज्ञान ॥ ===== ॐ =====

गीता सन्देश - 11

आसक्ति से सम्बंधित गीता के कुछ सूत्र [ भाग - 01] सूत्र - 2.48 आसक्ति रहित कर्म समत्व - योग है ॥ सूत्र - 4.22 समत्व - योगी कर्म - बंधनों से मुक्त होता है ॥ सूत्र - 3.19 - 3.20 अनासक्त कर्म , प्रभु का द्वार खोलता है और ऐसा योगी राजा जनक जैसा कर्म करता हुआ भी बिदेह की स्थिति में रहता है ॥ गीता के चार सूत्र कौन सी राह दिखा रहे हैं ? गीता को बुद्धि से पकड़ना चाहिए और एक सूत्र कमसे कम एक सप्ताह के लिए काफी होता है और तब .... उसमेंसे जो ज्ञान की किरण मिलती है , वह प्रभु मय बना देती है ॥ गीता से ज्ञान की किरणों का विकिरण हर पल हो रहा है , बस उस ऊर्जा क्षेत्र में ------ तन .... मन .... और बुद्धि से शांत हो कर बैठनें का अभ्यास जरुरी है ॥ ===== ॐ =====

गीता सन्देश - 10

हमारा भोग में पहला कदम ज्ञानेन्द्रियों , अपनें - अपनें बिषयों में, जब रूचि लेनें लगती हैं, तब वह ........ हमारा भोग का पहला कदम होता है ॥ गीता कहता है : इन्द्रिय बिषय के मिलन से , मन- इन्द्रिय योग से जो ऊर्जा बिषय को प्राप्त करनें के लिए उठती है , उसे आसक्ति कहते हैं ॥ आसक्ति स्तरपर जो होश बना लिया , वह योग मार्ग पर पहला कदम रख लिया - कुछ ऐसा समझो ॥ गीता एक दर्शन नहीं है , गीता एक ऎसी किताब नहीं है जिसको बसते से न निकाल कर , उसकी बाहर - बाहर से पूजा करके उसका प्रसाद प्राप्त करनें की कामना में बैठे रहना , गीता जीवन जीनें की नियमावली है ॥ गीता जीवन के एक - एक कदम को बताता है की भोग संसार में कैसे रखना है । गीता मनुष्य के साथ हर वक़्त है लेकीन ...... मनुष्य गीता को अपनानें में कंजूशी करता है ॥ जिसनें गीता को अपनाया , वह जीवन जीया , और ..... जो गीता से दूरी बना कर जीना चाहा , वह ...... सिकुड़ा - सिकुड़ा जीवन को अपनें पीठ पर ले कर चलता है और ..... रास्ते में कहीं दम तोड़ देता है , तन्हाई में ॥ आगे देखेगे - आसक्ति के सम्बन्ध में गीता के कुछ श्लोकों को ॥ ==== ॐ =====

गीता सन्देश - 09

गीता कहता है :------ जब कोई ज्ञानेन्द्रिय अपनें बिषय में पहुंचती है तब ........ मन उस बिषय के रस को प्राप्त करनें के लिए उपाय सोचता है , जिसको मनन कहते हैं । मनन से संकल्प - विकल्प उठते हैं । संकल्प से कामना बनती है । कामना टूटनें का भय , क्रोध पैदा करता है , और ------ कामना पूरी होनें की आशा , अहंकार को सघन करती है ॥ संकल्प के साथ विकल्प का होना संकल्प को कमजोर बनाता है : विकल्प का अर्थ है संदेह के साथ संकल्प । जहां संदेह है , वहाँ सीधी रेखा में यात्रा का होना असम्भव सा है ; कभी आगे तो कभी पीछे पैर चलते हैं और इस स्थिति में हम जहां होते हैं , वहीं के वहीं रहते हैं , देखिये इस सन्दर्भ में इस कथा को :----- पूर्णिमा की रात थी एक गाँव के कुछ नौजवान रात को नदी में नौका विहार का प्रयोजन किया । अपनें साथ खानें - पीनें की चीजों को ले कर आ पहुंचे नदी के तट पर , बैठे एक नाव पर और लगे करनें मस्ती । सारी रात खाते पीते रहे और मस्ती के आलम में झूमते रहे , समय का कोई पता न था , उनको । ऐसा लगनें लगा जैसे सुबह होनें ही वाली हो , चिड़ियों की आवाजे चारों तरफ से आ रही थी , उनमें से एक नें कहा , भाई ज़र

गीता सन्देश - 08 [ Gita sandesh - 08 ]

बिषय , ज्ञानेन्द्रियाँ और मन समीकरण [ Objects , senses and mind equation ] कहीं जानें की जरुरत नहीं : न ध्यान केंद्र जाइए , न किसी गुरु की तलाश में भटकिये न कुछ और कीजिये , केवल एक काम करना है अपनें पांच ज्ञानेन्द्रियों की चाल पर ध्यान रखना है हर वक़्त इतना देखते रहना है की कौन सी इन्द्रिय कहां रुक रही है और ------ रुकनें से मन में कैसा विचार उठ रहा है ॥ हमारे अन्दर जितनी ऊर्जा है , उसका लगभग नब्बे प्रतिशत भाग दो तरह से खर्च होता है ; [क] मन वर्तमान के बिषय पर क्या मनन करता है ? , इस पर , और ..... [ख] भूत काल की सोचों पर मन क्या सोचता है ? मन की गति पर बेहोश रहना , भोगी के लक्षण हैं और ..... मन के पल - पल की गतिविधियों पर नज़र रखना ....... ध्यान है ॥ ==== ॐ ======

गीता सन्देश - 07 [ gita sandesh - 07 ]

गीता तत्त्व विज्ञान में हम उन तत्वों को देखनें जा रहे हैं जिनके माध्यम से ........ [क] हम प्रभु मय हो सकते हैं , या ..... [ख] जो प्रभु से हमें दूर रखते हैं ॥ भोग में बसे रहनें का इरादा , प्रभु से हमें दूर रखता है , और .... भोग को प्रभु तक पहुंचनें का मार्ग समझना , हमें प्रभु मय बना देता है ॥ गीता में प्रभु अर्जुन के माध्यम से हम सब को कहते हैं :------ [क] ज्ञानेन्द्रियाँ जब अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचती हैं तब , अन्दर क्या घटित होता है , इसे समझो ? विज्ञान में विद्युत् ऊर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचानें के लिए दो तारों को जोड़ना पड़ता है और मन - बुद्धि में ऊर्जा के प्रवाह को समझनें के लिए किसी एक ज्ञान इन्द्रिय को उसके बिषय से मिलाना पड़ता है । जब कोई इन्द्रिय अपने बिषय से मिलाती है , तब ----- मन - बुद्धि में एक ऊर्जा बहनें लगती है , जिसको आसक्ति कहते हैं । आसक्ति को हम अगले अंक में देखेंगे , यहाँ अभी इन्द्रिय और बिषय को समझनें की कोशिश जारी है । मन के फैलाव रूप में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनका काम है , संसार में स्थित बिषयों के सम्बन्ध में सूचनाओं को एकत्रित करना और उन

गीता सन्देश - 06 [Gita Sandesh - 06 ]

गीता तत्त्व विज्ञान कहता है :------- वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड में जो भी हैं , ज्ञात या अज्ञात , सब माया से हैं , माया तीन गुणों के माध्यम का नाम है , जो प्रभु से है । गुणों के तत्वों के अन्दर अपनी - अपनी ग्रेविटी हैं जो इन्सान को पकड़ कर रखती हैं । गीता कहता है :---- देह में आत्मा को जो एक द्रष्टा है , ऊर्जा का श्रोत है , उसे भी तीन गुण बाध कर रखते हैं [ Gita says - if three gunas are removed from the physical body , it will not be possible for soul to remain within the body , so three gunas are ultimate chemicals available everywhere ] गीता आगे कहता है :------ तीन लोक हैं - मृत्यु - लोक , देव - लोक और ब्रह्म लोक । तीन लोकों में ऎसी कोई सूचना नहीं है जिस पर गुणों का असर न पड़ता हो , सभी गुणों से प्रभावित हैं । वह ------- जो गुणों का गुलाम है , परमात्मा की ओर नहीं चल सकता , और ....... वह ---- जो गुनातीत है , उसके हर कदम परमात्मा में ही चलते हैं ॥ भोग के माध्यम से , होश पैदा करके योग में पहुँचकर गुनातीत बना जा सकता है , जहां ---- भोग तत्वों के बंधन पहले गिरते हैं ....... राग से वैराग्य हो

गीता सन्देश - 05

गीता तत्व विज्ञान क्या बताएगा ? गीता तत्त्व विज्ञान बताएगा :------ [क] मनुष्य क्यों परमात्मा को पकड़ना चाहता है ? [ख] क्या परमात्मा मनुष्य को नहीं ढूढ़ रहा ? [ग] मनुष्य क्यों इतना अतृप्त है और समय के साथ - साथ यह और बढ़ती क्यों जा रही है ? [घ] मनुष्य अपनें स्वार्थ के लिए सब को अपनाता है लेकीन बाद में उसे दूर कर देता है , क्यों ? [च] मनुष्य क्यों भोग के चारों तरफ घूमता रहता है ? [छ] मनुष्य जो भी करता है , वह काम से सम्बंधित होता है , ऐसा क्यों ? [ज] मनुष्य क्यों इनका गुलाम है :----- ** तीन गुणों का , अर्थात ....... काम का ---- कामना का --- क्रोध का ---- मोह का ---- भय का ---- अहंकार का ----- और जब इनमें उसे कुछ मिलता नहीं दिखता तो वह भागता है ........ मंदिर की ओर , ऐसा क्यों ? मनुष्य क्यों ..... न भोग में ठहरता है --- न योग में , आखिर , उसे क्या चाहिए ? इन तमाम बातों को हम गीता तत्त्व विज्ञान में देखनें जा रहे हैं ॥ गीता में प्रभु श्री कृष्णा कहते हैं :----- चलना तुमको है , जहां से चलना चाहो , चलो , चाहे वह ------- इन्द्रियाँ हो मन हो बुद्धि हो ह्रदय हो मैं सब में हूँ , बश इतना सा होश जगाय

गीता सन्देश - 03

गीता कहता है ......... पढो नहीं , चलो ॥ आप कहीं जब परिभ्रमण के लिए जाते हैं तो वहाँ का टूरिस्ट - मैप अपनें साथ रखते हैं । अंतहीन यात्रा की यात्रा का नक्शा , गीता में है , और गीता कहता है ......... तुम पढ़ रहे हो , अच्छा है ----- पढो , खूब पढो लेकीन याद रखना , पढनें - पढनें में कहीं समय न निकल जाए ॥ यह भी याद रखना ------- एक न एक दिन ...... इस जनम में या ..... अगले जनम में ..... कभी न कभी तेरे को इस मार्ग पर तो चलना ही होगा , क्योकी ...... अभी तुम ...... कभी राम को पकड़ते हो , तो .... कभी काम को ॥ एक दिन जरुर आयेगा , जब तेरे को पता चलेगा की ..... राम और काम दोनों , दो नहीं एक ही हैं , हम द्वैत्य में जीते हैं , वासना को प्यार कहते हैं और ..... चक्कर काट रहे हैं एक इलिप्स मार्ग पर ॥ सर्कल और इलिप्स में एक फर्क है ; सर्कल का एक केंद्र होता है , और .... इलिप्स के दो केंद्र होते हैं ॥ मनुष्य के जीवन में जब तक दो केंद्र हैं - राम और काम , तब तक ...... वह मनुष्य कभी ..... जानवर की तरह होगा तो .... कभी योगी की तरह ॥ गीता कहता है ....... काम तो एक माध्यम है और माध्यम कभी साध्य नही हो सकता ॥

गीता सन्देश - 02

प्रभु को हम लोग क्या समझते हैं ? किस्मत और कर्म ; दो धारणाएं हमारे कण - कण में बैठी हुयी हैं । हम कभी अपनें कर्म को अहम् मानते हैं तो कभी किस्मत को , ऐसा करनें से हमें दो मार्ग मिलते हैं अपनें को बचानें के लिए । मनुष्य कभी यह नहीं स्वीकारता की जो कुछ हम पर गुजर रहा है , वह हमारे कारण है । जब हमारा कद उंचा दिखनें लगता है तो हम सीना तान कर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं ----- देखा , यह है मेरे कर्मों का फल ? और जब हालत खस्ती होती है तब सिकुड़ कर धीमी आवाज में कहते हैं --- क्या करें , किस्मत में कुछ ऐसा ही था । दो प्रकार के लोग नहीं हैं , लोग तो एक ही प्रकार के हैं जो कभी इस डाल पर लटके दीखते हैं तो कभी उस डाल पर । जैसे किसी ब्यक्ति को उसके गुणों को बढ़ा कर गाते हैं , उसे खुश करनें के लिए , जब हमारा मतलब होता है , ठीक उसी प्रकार हम प्रभु को खुश करते हैं , जैसे वह भी एक अबोध बच्चा हो । हम जब अनंत की मांग करते हैं , प्रभु के सामनें और सोच से अधिक मिल जाता है तब ------ उसका कुछ भाग उस मंदिर को दान करके अपनी मशहूरी करते हैं , कोई सोनें का क्षत्र चढ़ा रहा होता है तो कोई मंदिर के फर्श को बदलवा रहा

गीता सन्देश - 01

गीता - 14.26 यहाँ प्रभु कह रहे हैं ...... हे अर्जुन ! अब्यभीचारिनी अर्थात परा भक्ति में डूबा भक्त गुनातीत , ब्रह्म स्तर का होता है ॥ गीता को यदि बुद्धि स्तर पर समझना इतना ही आसान होता तो :----- परा शब्द या अब्यभीचारिनी शब्द का प्रयोग न किया गया होता । परा का अर्थ है ....... साधना में जब धीरे - धीरे साधना पकनें लगती है तब परा का कब और कैसे द्वार खुलता है , कुछ पता नहीं चल पाता और वहाँ की अनुभूति को योगी बाट नहीं सकता क्योंकि ----- इस स्थिति में ...... मन - बुद्धि , दोनों द्रष्टा होते हैं ॥ अब देखते ब्रह्म स्तर का क्या आशय हो सकता है ? यहाँ गीता के दो सूत्रों को देखना है -- सूत्र - 13.13 और 14.3 को दोनों सूत्रों को यदि गहराई से देखा जाए तो जो भाव बनता है , वह है ....... आदि - अंत रहित प्रभु के अधीन जो सभी जीवों का बीज हो , वह है - ब्रह्म । ऊपर के श्लोक में प्रभु कह रहे हैं ....... परा भक्त जो गुनातीत हो , वह ब्रह्म स्तर का होता है अर्थात ------ उसके मन - बुद्धि साक्षी भाव में होते हैं , जिनमें निर्विकार ऊर्जा भरी होती है , जिसके कण - कण से प्रभु मय ऊर्जा का विकिरण होता रहता है और ......

गीता मर्म - 50

संन्यास: कर्मयोग: च निः श्रेयस करौ उभौ । तयो: तु कर्म - संयासात कर्मयोग: विशिष्यते ॥ गीता - 5.2 गीता में प्रभु कह रहे हैं :------ कर्म - योग एवं संन्यास , दोनों मुक्ति पथ हैं लेकीन सीधे संन्यास में पहुंचना अति कठिन है ॥ प्रभु की बातें यदि भोगी के लिए इतनी आसान होती तो ...... अर्जुन जैसे के लिए भी गीता ज्ञान की जरुरत न पड़ती , क्यों की ...... अर्जुन कोई साधारण ब्यक्ति न थे , उनके अन्दर भी कोई ऊर्जा देखनें के बाद , प्रभु अपनाए होंगे । प्रभु क्यों कह रहे हैं ------- कर्म - योग , कर्म संन्यास से उत्तम है ? आम भोगी के लिए सीधे संन्यास में पहुँचना असंभव है , क्योंकि भोग कर्म में जब भोग तत्वों की पकड़ नहीं होती तब वह कर्म योग बन जाता है । भोग कर्म से जब वही कर्म योग बन जाता है तब संन्यास का द्वार खुलता है । संन्यास , है क्या ? भोग कर्मों में पैदा हुआ होश , कर्म बंधनों को ढीला करता है और जब कर्म बंधन न के बराबर हो जाते हैं तब ...... वह कर्म , योग कहलाता है ..... और कर्म बंधनों की अनुपस्थिति कर्म - संन्यास कहलाता है ॥ कर्म संन्यासी की कोई बाहरी पहचान नहीं है , कर्म संन्यासी को एक कर्म संन्यासी

गीता मर्म - 49

गीता के दो सूत्र :------------ [क] यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानं धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहं ॥ गीता - 4.7 [ख] परित्राणाय साधुनां बिनाशाय च दुष्कृताम । धर्मसंथापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ चलिए देखते हैं यहाँ गीता क्या सीख दे रहा है ? जब - जब धर्म का पतन होनें लगता है , अधर्म ऊपर उठनें लगता है , तब - तब मैं ------ धर्म की पुनः स्थापना के लिए .... दुष्टों के बिनाश के लिए ...... साधू पुरुषों के हित के लिए .... हर युग में ------ अब्यक्त से ब्यक्त रूप में प्रकट होता हूँ ॥ धर्म का पतन होता ही नहीं , धर्म के ऊपर अधर्म की चादर आजाती है , लोग अधर्म से आकर्षित होनें लगते हैं , लोगों को धर्म निर्जीव सा दिखनें लगता है , साधु लोग साधाना से दूर हो जाते हैं , साधू तो रह नहीं पाते , साधू जैसा स्वयं को दिखानें लगते हैं , अधर्म का आकर्षण लोगों के मन - बुद्धि पर सम्मोहन कर देता है और ----- मनुष्य , मनुष्य नहीं रहता , दरिंदा हो जाता है , तब ...... पृथ्वी पर एक ऎसी ऊर्जा का क्षेत्र बन जाता है जो ......... प्रभु को निराकार से साकार र

गीता मर्म - 48

गीता में तत्त्व शब्द क्या है ? भौतिक विज्ञान में बीसवीं शताब्दी में आकर एक नया विज्ञान - कण विज्ञान बन गया जिसको अंग्रेजी में Particle Physics कहते हैं । गीता का तत्त्व विज्ञान कुछ कण - विज्ञान जैसा है । किसी बिषय को तत्त्व से जाननें का अर्थ है - उसको हर पहलू से समझना , जैसा वह है , वह भी बुद्धि स्तर पर । आत्मा को तत्त्व से जाननें का अर्थ है - आत्मा को करता के रूप में देखना , द्रष्टा के रूप में देखना , भौतिक बिज्ञान की दृष्टि से देखना , रसायन बिज्ञान की दृष्टि से देखना और जीव विज्ञान की दृष्टि से देखना ; इस प्रक्रिया में सोचनें वाला कब और कैसे मन - बुद्धि से परे की यात्रा पर हो जाता है , उसे पता तक नहीं चल पाता । तत्त्व से जाननें का भाव है - ऐसे समझना जैसा वह है , ऎसी समझ जो संदेह रहित हो , और जिसमें कोई प्रश्न बनानें की कोई गुंजाइश न दिखे । एक और उदाहरन लेते हैं ; जैसे यदि काम [ sex ] को समझना है तो इसको समझनें के लिए हमें निम्न तत्वों को समझना पड़ेगा :--- ** राजस गुण क्या है ? ** कामना , क्रोध क्या हैं ? ** कामना का बीज आसक्ति क्या है ? ** आसक्ति का बीज मनन क्या है ? ** मनन का केंद्र

गीता मर्म - 47

गीता के दो रत्न :------- युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस: । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थाम अधिगच्छति ॥ गीता - 6.15 न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ गीता - 4.38 गीत में प्रभु अर्जुन को कह रहे हैं :----- गीता - 6.15 हे अर्जुन मन - माध्यम से निर्वाण तक की यात्रा का नाम , ध्यान है ॥ गीता - 4.38 यहाँ प्रभु कहते हैं :--- हे अर्जुन ! चाहे तूं योग में उतरो या साधना का कोई और माध्यम चुनों , सब से जो मिलेगा , वह ज्ञान होगा ॥ गीता से यदि आप मोतियों को चुनना चाहते हैं तो मोटर - बोट से यात्रा नहीं करनी पड़ेगी , आप को गीता सागर में देर तक दुबकी लेनें का अभ्यास करना पडेगा । गीता, यात्रा में उस जगह पहुंचा कर चुप सा हो जाता है जहां से भोग संसार बहुत दूर बहुत धूमिल सा दिखता है जहां से वापस जाना संभव नही दिखता और आगे जो दिखता है उसे ब्यक्त करना संभव नहीं , ऎसी स्थिति में गीता योगी क्या करे ? ऊपर जो दो सूत्र दिए गए हैं , उनको आप बुद्धि - योग की बुनियाद समझ कर अपनें पास रख सकते हैं और समय - समय पर आप इनमें अपनी बुद्धि लगाते रहें , आज नहीं तो कल सही

गीता मर्म - 46

गीता तत्त्व विज्ञान के दो रत्न गीता रत्न - 14.19 नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुनेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं स: अधिगच्छति ॥ प्रभु कह रहे हैं :------ अपनें दैनिक कार्यों के होनें में जो गुणों को करता देखता है , वह मेरे दिव्या स्वभाव में होता है ॥ गीता रत्न - 14.23 उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते । गुणा वर्तान्त इत्येव य: अवतिष्ठति न इंगते ॥ गुणों से जो प्रभावित नहीं होता , जो गुणों को करता देखता है , वह गुनातीत योगी होता है । गीता के दो रत्न आप को यहाँ दिए गए हैं , आप इन दो रत्नों को अपनें जीवन में उतारनें का अभ्यास करें , संभव है , एक दिन आप अपनें मूल रूप को देख सकें ॥ ==== ओम ======

गीता मर्म - 45

गीता तत्त्व विज्ञान में अनमोल रतन [क] गीता सूत्र - 4.38 साधना या योग का मार्ग कोई भी क्यों न हो , सब से ज्ञान मिलता है जो प्रभु मय बना देता है ॥ ज्ञान का अर्थ वह नहीं जो हम - आप जानते हैं , वह तो मुर्दा ज्ञान है जो किताबों से मिलता है , योग से गुजरनें से जो अनुभव होता है , वह ज्ञान है और गीता कहता है [ गीता - 13.3 ] जिस से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का बोध हो , वह ज्ञान है ॥ [ख] गीता सूत्र - 6.3 योगारूढ़ योगी से कर्म स्वयं छूट जाते हैं ॥ [ग] गीता सूत्र - 6.2 योग - संन्यास एक हैं जो संकल्प रहित स्थिति में घटित होते हैं ॥ आप को छोटे - छोटे सूत्रों के माध्यम से वहाँ पहुँचानें का काम हो रहा है जहां जाना तो सभी चाहते हैं लेकीन कोई अपनें को बदलनें के लिए तैयार नहीं ॥ गीता वह औषधि है ------ जो धीरे - धीरे आप को ........ भोग से योग की ओर मोड़ता है संसार के गुण सम्मोहन से परे पहुंचाता है और आप को वह दिखाता है जो ..... आप के मनुष्य होनें का लक्ष्य है ॥ ===== ॐ =======

गीता मर्म - 44

तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो : । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ 3.28 प्रभु यहाँ कह रहे हैं :----- हे अर्जुन ! तत्त्ववित्तु यह समझते हैं - कर्म जो हो रहा है , वह गुण कर रहे हैं , मैं तो मात्र द्रष्टा हूँ । उनकी यह सोच उनको कर्म बंधन से मुक्त रखती है ॥ जब 1905 में आइन्स्टाइन E=mc2 [mass x square of the speed of light ] सूत्र दिया तो उस समय के सभी वैज्ञानिकों के दिमाक में भूकंप सा आगया क्योंकी सूत्र जितना छोटा था , उतना ही गंभीत इसकी चोट थी । आज का सारा न्यूक्लिअर विज्ञान आइन्स्टाइन के इस सूत्र से निकलता है । गीता का हर एक सूत्र आइन्स्टाइन जैसे सूत्र हैं , वह जो इनकी गणित बनानें में लग गया , वह गया , और जो अपनें ऊपर इन सूत्रों का प्रयोग करनें लगा , वह तत्ववित्तु बन गया । गीता का तत्त्ववित्तु वह है जो :----- प्रकृति - पुरुष ..... देह - विदेह ...... सत - असत ..... काम - राम , को ठीक वैसे जानता है जैसे ..... प्रभु अर्जुन को बतानें की कोशिश कर रहे हैं ॥ ===== ॐ =======

गीता मर्म - 43

गीता श्लोक - 7.3 मनुष्याणां सहस्त्रेशु कश्चित् ययति सिद्धये । यततां अपि सिद्धानां कश्चित् माम वेत्ति तत्वत: ॥ श्लोक - 7।3 प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं :----- अर्जुन ! हजारों लोग सिद्धि के लिए यत्नशील हैं , उनमें से एकाध लोग सिद्धि पा भी जाते हैं लेकिन ..... सिद्धि प्राप्त लोगों में से कोई - कोई कभी - कभी मुझे तत्त्व से जान पाता है ॥ अब आप को और हमें सोचना है ----- सिद्धि प्राप्त लोग जो प्रभु को तत्त्व से नहीं जान पाते , वे फिर क्या करते हैं ? सिद्धि प्राप्त लोग सिद्धि में फिर क्या पाते हैं , यदि परमात्मा को नहीं समझ पाते तो ? सीधी सी गणित है , कोई ज्यादा सोचनें की बात बात भी नहीं है ..... साधना एक यात्रा है जिसको कृष्णामूर्ति कहते हैं ----- Truth is pathless journey , और झेंन कहते हैं , दिशा रहित यात्रा । साधना में भोग से ऊपर उठाना पड़ता है अर्थात ....... तन , मन और बुद्धि को निर्विकार रखनें का यत्न करना होता है और जब यह हो जाता है तब ------ स्थिर मन - बुद्धि की स्थिति मिलती है और ....... इस स्थिति में सिद्धि मिलती है , सिद्धि क्या है ? सिद्धि में वह शक्ति आजाती है जो मनुष्य के भूत ,

गीता मर्म - 42

गीता के दो श्लोक :---- [क] गीता श्लोक - 13.30 प्रकृति को करता देखनें वाला यथार्थ देखता है ........... [ख] गीता श्लोक - 13.31 सभी जीवों को ब्रह्म के फैलाव रूप में देखनें वाला , ब्रह्म - बोध से परिपूर्ण होता है ....... जो कण - कण में परमात्मा को देखता है , वह परमात्मा से परिपूर्ण होता है --------- जो मैं और तूं को अलग - अलग देखता है , वह माया में डूबा ब्यक्ति होता है ---------- जो तूं को भी मैं में देखता है , वह प्रभु भक्ति में डूबा भक्त प्रभु मय ही होता है ----------- दुसरे विश्व - युद्ध के समय की बात है ; एन संन्यासी बर्मा के जंगलों में नाच रहा था और पास में अंगरेजों की सेना का कैम्प लगा हुआ था । अंग्रेज सिपाही उस योगी को जासूश समझ कर बंदी बना लीया और उस से पूछनें लगे की वह किसका जासूश है लेकीन वह तो अलमस्ती में था , नाचना और हसना , बस दो काम थे उसके । सिपाहियों की सारी कोशिशें बेकार गयी , वह योगी कुछ भी न बोला अंत में सिपाही उस योगी के पेट में भाला आर - पार कर दिया , तब वह योगी नाचता , नाचता जब जमीर पर गिरा , तब बोला ---- मैं नहीं जानता था की आप इस रूप में मुझसे मिलेंगे ॥ परम का

गीता मर्म - 41

गीता के तीन सूत्र ---- जो हमें हमारी पहचान दिखाते हैं ॥ [क] गीता - 2.14 इन्द्रिय सुख क्षणिक हैं ॥ [ख] गीता - 5.22 इन्द्रिय सुख में दुःख का बीज पल रहा होता है ॥ [ग] गीता - 18.38 इन्द्रिय - बिषय मिल कर जो सुख देते हैं वह भोग के समय तक अमृत सा लगता है लेकीन उसमें बिष होता है ॥ इन्द्रिय सुख के अलावा और कौन सा सुख है ? पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके अपनें -अपनें बिषय हमें सुख - दुःख से गुजारते हैं और इनके माध्यम से हम :----- [क] संसार से जुड़े हुए हैं , संसार अर्थात तीन गुणों की मया जो हमें अपनें में रख कर परमात्मा से दूर रखती है । [ख] ज्ञानेन्द्रियाँ एवं बिषयों के सहयोग से हम भोग तत्वों को समझ कर माया से परे पहुँच कर माया मुक्त हो कर माया पति को समझ कर धन्य हो जाते हैं जिसको गीता परमानंद कहता है । इन्द्रिय सुख का राग , हमारी पीठ प्रभु की ओर करता है और -------- इन्द्रिय सुख - दुःख का द्रष्टा , परमानंद में रहता है ॥ ===== ॐ =====

गीता मर्म - 40

सहजं कर्म कौन्तेय स- दोषं - अपि न त्यजेत । सर्व - आरम्भा: हि दोषेण धूमेंन अग्नि इव आब्रीता: ॥ 18।48 ॥ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ------- अर्जुन ! सभी कर्म दोषयुक्त हैं ; जैसे अग्नि बिना धुँआ नहीं हो सकती वैसे कर्म बिना दोष के नहीं हो सकते लेकीन फिरभी सहज कर्मों को करना ही पड़ता है ॥ इस श्लोक से पहले दो गीता के श्लोक दिए जा चुके हैं ; श्लोक - 3.5 , 18.11 और इनके साथ ऊपर दिया गया श्लोक भी है , आप इन तीन श्लोकों को एक साथ समझें । प्रभु इन तीन सूत्रों में कह रहे हैं ......... सभी कर्म दोषयुक्त हैं , कर्म गुणों के सम्मोहन में होता है , मनुष्य तो द्रष्टा है , गुणों के माध्याम से होनें वाले कर्म दोषरहित हो नहीं सकते , ऎसी स्थिति में क्या करना चाहिए ? प्रभु कहते हैं ------- कर्म संसार में रहनें के लिए , शरीर को चलानें के लिए, तो करना ही पड़ता है , लेकीन यह एक सहज माध्यम है गुणों की साधाना के लिए । कर्म में कर्म बंधनों को समझना , कर्म योग है , जो कर्म योगी बना कर ज्ञान के माध्यम से गुनातीत परमात्मा की खुशबू से परिचय कराता है । जब कोई गुण - तत्वों से आकर्षित नहीं होता तो वह मायामुक्

गीता मर्म - 39

न हि कश्चित् क्षणं अपि जातु तिष्ठति अकर्म - कृत । कार्यते हि अवश : कर्म सर्व: प्रकृति - जै: गुण इव: ॥ श्लोक - 3.5 यहाँ प्रभु कहते हैं :----- अर्जुन ! ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो एक पल के लिए भी कर्म रहित हो सके । यहाँ सब को कर्म तो करते ही रहना है । मनुष्य क्यों कर्म मुक्त नहीं हो सकता ? इस बात के लिए प्रभु कह रहे हैं :--------- कर्म करनें की ऊर्जा , गुण समीकरण से मिलती है , तीन गुणों का मनुष्य में होना अति आवश्यक होता है क्योंकि तीन गुण आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं [ गीता - 14.5 ] और तीन गुणों में जो गुण ऊपर होता है , उसके स्वभाव के अनुकूल कर्म होता है । गुण समीकरण के लिए गीता में श्लोक - 14.10 है । ==== om =====

गीता मर्म - 38

गीता श्लोक - 18.11 न हि देह - भृता शक्यं त्यक्तुम कर्माणि अवशेषतः । य: तु कर्म फल त्यागी स: त्यागी इति अभिधीयते ॥ श्लोक के शब्दों का अर्थ :-- नहीं , निश्चय , ही , देहधारी , द्वारा , संभव है , त्यागनें के लिए , कर्म , पूर्णतया । जो , लेकीन , कर्म के , फल का , त्याग , करनें वाला , वह , त्यागी , इसप्रकार , कहलाता है ॥ गीता का श्लोक और संधि विच्छेद के साथ प्रत्येक शब्दों का यथा संभव अर्थ आप के सामने है , अब आप इनको बार - बार पढ़ें और गूनें , ऐसा करनें से प्रभु की बात को आप स्वयं पकडनें में सफल हो सकते हैं । मैं जो समझ रहा हूँ वह कुछ इस प्रकार से है :------ यह श्लोक अर्जुन के इस प्रश्न के सन्दर्भ में कहा गया है -------- हे प्रभु ! मैं संन्यास एवं त्याग के तत्वों को अलग - अलग समझना चाहता हूँ । प्रभु कहते हैं ....... अर्जुन कर्म मुक्त होना तो संभव नहीं लेकीन कर्म में फल की कामना का न होना संभव हो सकता है । यदि कर्म फल कामना के बिना हो तो वह कर्म संन्यास कहलायेगा । कर्म बिना फल - कामना के होना तब संभव है जब कर्म - योग साधना में गहरी पैठ हो । गीता श्लोक - 18.2 में प्रभु कहते हैं ........... का

गीता मर्म - 37

सांख्य कहता है :---- जो है , जिसको हम समझते हैं , जो ब्रह्माण्ड की सूचनाएं हैं , जितनें भी जीव हैं सब ......... प्रकृति - पुरुष के योग से हैं । तीन गुणों से प्रकृति है जो मनुष्य को भोग तत्वों के माध्यम से आकर्षित करती है और अनेक रूपों में चेतना , पुरुष है , जो जीव को धारण करती है ॥ सांख्य की यह बात गीता में कुछ इस प्रकार से दी गयी है :----- प्रभु जनित माया तीन गुणों से है । माया से माया में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है और ब्रह्माण्ड में पृथ्वी है तथा पृथ्वी पर जीव है एवं जीवों में मनुष्य एक ऐसा जीव है जिसके पास असीमित सोचनें की क्षमता है और इसलिए वह सब कुछ होते हुए भी परेशान है । आइये देखते हैं इस सम्बन्ध में गीता के कुछ सूत्रों को .......... सूत्र - 7.14 तीन गुणों से मेरी माया है जिसको पार करना इतना आसान नहीं है ॥ सूत्र - 7.13 माया में उलझा , मायापती नहीं हो सकता ॥ सूत्र - 13.20 प्रकृति - पुरुष सनातन हैं , प्रकृति में तीन गुण हैं , गुण भोग के आकर्षण हैं ॥ सांख्य परमात्मा को नहीं स्वीकारता , केवल चेतना तक इसकी पहुँच है और गीता- सांख्य में सब की मूल परमात्मा है ॥ आज सांख्य के मौलिक सू