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गीता में दो पल - 6

<> बुद्धि कैसे स्थिर होती है ? भाग - 1 <>  ● देखिये गीता श्लोक : 2.64 + 2.65 ●  1- श्लोक : 2.64 > " जिसकी इन्द्रियाँ राग - द्वेष अप्रभावित रहती हुयी बिषयों में विचरती रहती हैं , वह नियोजित अन्तः अन्तः करण वाला प्रभु प्रसाद प्राप्त करता है ।"   # अन्तः करण क्या है , और प्रसाद क्या है ? यहाँ अन्तः करण के लिए देखें :--   * भागवत : 3.26.14 * और प्रसादके लिए गीता श्लोक : 2.65 ।  भागवत कहता है , " मन ,बुद्धि ,अहंकार और चित्तको मिला कर अन्तः करण बनता है ।" चित्त क्या है ? मन की वह निर्मल झिल्ली जहाँ गुणोंका प्रभाव नहीं रहता ।मनुष्यके देह में गुणों से निर्मित तत्त्वों में मात्र मन एक ऐसा तत्त्व है जो सात्विक गुण से निर्मित  है ।  2- गीता श्लोक : 2.65 > " प्रभु प्रसाद से मनुष्य दुःख से अछूता रहता है और ऐसे प्रसन्न चित्त ब्यक्ति की बुद्धि स्थिर रहती है । "   <> स्थिर बुद्धि वाला ब्यक्ति स्थिर मन वाला भी होता है ।  <> स्थिर बुद्धि दुखों से दूर रखती है ।  <> स्थिर बुद्धि वाला प्रभु केन्द्रित रहते हुए परम आनंद में मस्त रहता है ।  ●

गीता में दो पल - 5

1- असीम बुद्धि मिली हुयी है ,आप को । यक़ीनन यह पल आपको दुबारा नहीं मिलनें वाला , जितनी दूरी तय कर सकते हो , कर लो ,बादका पछतावा आपके काम न आयेगा ।अनंतकी यात्राके लिए आप बुद्धि मार्गको अपनाया है और आज बुद्धि प्रधान युग चल रहा है , आपके कदम हैं तो सही मार्ग पर यह मार्ग हैं , दुर्गम । 2- बुद्धि मार्गी धीरे - धीरे पहले बाहर से अकेला होता जाता है और जब पूर्ण एकांत उसे भा जाता है तब --- 3- उसकी साधनाका अगला चरण प्रारम्भ होता है। अगले चरण में अन्दर से रिक्त होना प्रारम्भ हो जाता है। 4- बाहरकी रिक्तताको समझना बहुत आसान तो नहीं लेकिन समझा जा सकता है लेकिन अन्दरकी रिक्तता मनुष्य को द्विज बना रही होती है । ** द्विज क्या है ? द्विज का अर्थ है , दुबारा जन्म लेना । दुबारा जन्म वही ले सकता है जो पहले मरे और कोई मरनें को कितनी आसानी से स्वीकार सकता है ,यह सोचका बिषय है । 5- अन्दरकी रिक्ततामें दो द्वार खुलते हैं ; एक सीधे बोधिसत्व में पहुँचाता है और दूसरा द्वार जिसके आकर्षणसे बचना अति कठिन होता है , वह पागलपन में पहुँचाता है । ** आप अपनें बुद्धि - योग साधना में हर पल होश बनाए रखें । ~~ ॐ ~~

गीता में दो पल - 4

1- कामना , क्रोध , लोभ और मोह का गहरा सम्बन्ध है अहंकार से । 2- अहंकार कामना , क्रोध , लोभ और मोह का प्राण है , ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा । 3- कामना , क्रोध , लोभ और मोह ये भोग की रस्सियाँ हैं जिनमें मोह रस्सी की लम्बाई सबसे अधिक होती है और मोटाई सबसे कम । 4- मोह तामस गुण का तत्त्व है और तामस गुण के प्रभावी होनें पर जब किसी की मौत होती है तो उसे अगली कीट , पतंग और पशु में से कोई एक योनि मिलती है (गीता - 14.8+14.15 ) । 5- तुलसी दास कृत रामचरित मानस से ऐसा लगता है कि सम्राट दशरथके प्राण घोर मोह में निकले थे । 6- मोह की दवा सत्संग है ,भागवत ऐसी बात कहता है लेकिन सत्संग में दो होते हैं ; एक सत और दुसरे वे जो सत के जिज्ञासु हैं । सत पुरुष तो पारस होता है पर होता दुर्लभ है । यदि पारस हो भी तो क्या होगा उसके पास जानें से अगर हम लोहा नहीं हैं क्योंकि पारस केवल लोहे को सोना बनता है , गोबरको नहीं । 7- भागवत में कहा गया है कि गंगा पृथ्वी पर उतरनें से पहले एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि जब मैं पृथ्वी पर रहूंगी तो लोग अपनें - अपनें पाप धो - धो कर मेरी निर्मलता समाप्त कर देंगे अतः मैं वहाँ नहीं

गीता में दो पल भाग - 3

* भोग - कर्म योग - कर्ममें पहुँचा सकता है । * योग - कर्म , योग सिद्धि में पहुँचाते हैं । << और अब आगे >> * मनुष्यका कर्म जीवन की जरुरत को पूरा करनेंका हेतु तो है लेकिन यह भोग से योग में पहुँचानें का भी एक सरल माध्यम है । भोग में भोग तत्त्वों के प्रति होश बनाना ही कर्म योग है ।कर्म में कर्म तत्त्वों की गांठों को खोलना ,योग या ध्यान है । योग जब उपजता है यब कर्म तत्त्वों की पकड़ समाप्त हो जाती है। कर्म - तत्त्वों की पकड़ जब नहीं होती तब भोग के प्रति वैराग्य हो जाता है । वैराग्य में ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान परम सत्य का आइना होता है । * इतनी सी बात यदि गहराई से पकड़ी जा सके तो परम सत्यकी किरण दिखनें लगती है । <> अब ज़रा इन बातों को पकड़ें <> * भोग से भोग में हम हैं --- * भोगमें भोग तत्त्वों की गाठों को हमें खोलना है --- * निर्ग्रन्थ की स्थिति को योग सिद्धि कहते हैं --- * योग सिद्धि प्रभुका खुला द्वार है ।। ~~ ॐ ~~

गीता में दो पल भाग - 2

1- गीता - 3.5+18.11 > कोई जीवधारी एक पल केलिए भी कर्म मुक्त नहीं हो सकता ।कर्म करनें की उर्जा गुणों से मिलती है और गुणों में लगातार हो रहे परिवर्तन का परिणाम है कर्म । 2- गीता - 14.10 + 18.60 > सात्त्विक ,राजस और तामस ये तीन गुण मनुष्य में सदैव रहते हैं जिनसे उस मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है। 3- गीता - 5.22+18.38 > इन्द्रिय -बिषय के योग से जो होता है वह भोग है । भोग - सुख भोग के समय अमृत सा भाषता है पर उसका परिणाम बिष समान होता है ।कोई ऐसा कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो पर सहज कर्मों को तो करना ही चाहिए । 4- गीता - 18.48- 18.50 तक > आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परानिष्ठा है । 5- गीता - 13.2 > ज्ञान वह जो प्रकृति -पुरुष का बोध कराये । 6- गीता - 3.37+14.6-14.8+14.12+14.13+14.22> आसक्ति ,काम ,कामना ,क्रोध , लोभ ,मोह , आलस्य ,और भय - ये गुणतत्त्व हैं जिनको भोग तत्त्व भी कहते हैं । 7- गीता - 7.14 > तीन गुणों के माध्यम को माया कहते हैं । 8- गीता - 7.15 > माया प्रभावित ब्यक्ति आसुरी प्रकृति का होता है । 9-

गीता में दो पल ( भाग - 1 )

1- भोग - सम्मोहनकी गहराईको समझना योग है । जबभी हम भोगकी ओर पीठ करना चाहते हैं वह झटसे अपनी ओर रुखको मोड़ लेता है और इस प्रक्रियामें इतना कम समय लगता है कि हम इसके प्रति अनभिज्ञ ही बने रहजाते हैं । 2- भोगकी वह कौन - कौन सी रस्सियाँ हैं जिनके माध्यम से वह हमें बाध कर रख रक्खा है ? 3- रस्सियाँ तो तीन हैं जिनको तत्त्व - ज्ञानी गुण कहते हैं ; जिनमें से दो देहमें नाभि और उसके नीचे सक्रीय रहते हैं और एक हृदय और हृदयके ऊपर वाले चक्रों पर सक्रीय रहता है जैसे हृदय , कंठ , आज्ञाचक्र और सहस्त्रार । 4- भोगसे बाधनें वाली मजबूत दो रस्सियों को तत्त्व ज्ञानी राजसगुण और तामसगुण कहते हैं और तीसरी वह रस्सी है जो अहंकारके प्रभाव में भोग से जोडती है अन्यथा वह निर्मल निर्विकार उर्जा के संचारका माध्यम है जिसे कहते हैं , सात्त्विक गुण ।सात्त्विक गुण में पहुँचना वह स्थिति है जो भोग - योगका जोड़ है , जहाँ से पीछे भोगकी ओर मुड़ना अति आसान और आगे निराकार , अब्यक्त और अप्रमेयकी यात्रामें उतरना अति कठिन । 5- तत्त्व ज्ञानी कृष्ण कहते हैं ( गीता - 14.5 ) : आत्मा देह में तीन गुणों द्वारा बधी है ; जब साधक गुणातीत हो

गीता में प्रभु के वचन

<> आसक्ति भाग - 04 <>  ● यहाँ गीताके कुछ चुने हुए सूत्रों को लिया जा रहा है जिनका सीधा सम्वन्ध आसक्ति से है ।  1-गीता - 2.48 > आसक्ति रहित कर्म , समत्व योग है ।  2-गीता -3.19+3.20 > अनासक्त कर्म प्रभुका द्वार खोलता है ।  3-गीता - 4.22 > समत्व योगी कर्म -बंधन मुक्त होता है । 4- गीता - 5.10 > आसक्ति रहित कर्म करनें वाला भोग संसार में कमलवत रहता है ।  5-गीता - 18.23 > आसक्ति , राग और द्वेष रहित कर्म , सात्विक कर्म होते हैं ।  6- गीता - 18.49 > अनासक्त कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ।  7- गीता - 18.50 > नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।  8- गीता - 2.62 > मन द्वारा बिषयों का मनन उस बिषय के प्रति आसक्ति पैदा करता है ।  9-गीता - 3.34 > सभीं बिषयों में राग -द्वेष की उर्जा होती  है ।  10-गीता - 2.56 + 4.10 > राग ,भय और क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।  <> आसक्ति इन्द्रिय , बिषय और मन ध्यान की पहली रुकावट है <> <> कर्मयोग - साधना में आसक्ति की साधना पहली साधना है ।  <> आसक्ति की साधना जब पकती है तब योग घटित होता