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गीता - अमृत ( दो शब्द )

दो शब्द :  जब - जब गीताके सम्बन्धमें कुछ कहना चाहता हूँ , ऐसा लगनें लगता है जैसे कोई मुझे रोक रहा हो और यह कह रहा हो कि  मुर्ख ! यह क्या करनें जा रहे हो ?   * क्या जो तुम लोगों को बतानें की तैयारी कर रहे हो , उसे स्वयं ठीक -ठीक समझ पाए हो ?  * क्या तुम्हें यह पक्का यकीन है कि तुम जिस बीज को बोना चाह रहे हो वह पूरी तरह से पक चूका है ?  * इस प्रकार कुछ और मौलिक प्रश्न मेरे मन -बुद्धि पर डूब घास की तरह छा जाते है और मैं इस सम्बन्ध में आगे नहीं चल पाता लेकिन आज हिम्मत करके दो -एक कदम चलनें की कोशिश में हूँ और उम्मीद है कि इस मूक गीता -यात्रा में आप मेरे संग प्रभु की उर्जा के रूप में रहेंगे । आइये ! अब हम और आप गीताकी इस परम शून्यताकी यात्रामें पहला कदम उठाते हैं और यदि यह पहला कदम ठीक रहा तो अगले कदम स्वतः उठते चले जायेंगे ।  <> गीतामें सांख्य योगके माध्यमसे कर्म-योग की जो बातें प्रभु अर्जुन को बताते हैं , उन्हें जीवनमें अभ्यास करनेंसे सत्यका स्पर्श होता है लेकिन तर्कके आधार पर उन पर सोचना अज्ञानके अन्धकार में पहुँचाता है ।  <> गीता जैसा कहता है , वैसा बननेंका अभ्यास करो , गी

गीता एक सन्देश है

^ भागवत में ( भागवत : 1.4 ) कहा गया है कि एक दिन व्यास जी सरस्वती के तट पर स्थित अपनें आश्रम पर सुबह -सुबह किसी गहरी चिंता में डूबे हुए थे । नारदजीका आगमन हुआ और नारद जी व्यास जी को सलाह देते हुए कहते हैं ,मैं आपकी चिंताका कारण समझ रहा हूँ । आप प्रभु श्री कृष्ण की लीलाओं का ऐसा वर्णन करे जो लोगों को भक्ति माध्यम से प्रभुमय बनानें में सक्षम हो । ^^ व्यासजी नारदजी की बात को समझ गए और भागवत की रचना हेतु समाधि -योग माध्यममें पहुँच गए । जब 18000 श्लोकों का भागवत पूरा हुआ तब वेदव्यास जी सबसे पहले अपनें 16 वर्ष से कुछ कम उम्र के पुत्र श्री शुकदेव जी को सुनाया ।भागवत पुराण 18 पुराणों में से एक है ।महाभारत की कथा व्यास जी भागवत से पहले लिखी थी जिसमें गीता महाभारतके भीष्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 6.25 - 6.6.42 के मध्य है । * भागवत को भक्ति रस का समुद्र समझ जाता है और गीता सांख्य -योग के आधार पर कर्म माध्यम से भक्ति में और भक्ति से वैराग्य में तथा वैराग्य में ज्ञान माध्यम से तत्त्व -ज्ञानी के रूप में आवागमन से मुक्त होनें का एक वैज्ञानिक मार्ग दिखाता है । ** पहली बात : भक्ति केलिए सीधा कोई मार

गीता कहता है

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क्या करोगे जान कर /

<> यही रहस्य है <>  * जीवनको समझते -समझते जीवनका अंत आजाता है और हमें जीवनका स्वाद तो नहीं मिल पाता ,पर जो हमारे साथ जाती है वह है घोर अतृप्तता । गीता में प्रभु कृष्ण कहते हैं , देह त्याग कर जब आत्मा चलता है तब उसके साथ मन - इन्द्रियाँ भी होती हैं । भागवत (स्कन्ध - 2,3,11) कहता है , सात्विक अहंकार कालके प्रभाव में मन की उत्पत्ति करता है और 10 इन्द्रियाँ राजस अहंकार एवं कालके सहयोग से उत्पन्न होती हैं ।मनुष्य के देह में मन की स्थिति वैसी होती है जैसे हवाई जहाज में ब्लैक बॉक्स की स्थिति होती है । सृष्टि प्रारम्भ से आजतक का इन्द्रियों का अनुभव मनमें संचित होता है और सघन अतृप्त अनुभव मनुष्य के अगले योनिको निर्धारित करता है ।  * पढ़ लेंगे तब , कारोबार सेट हो जाएगा तब , बच्चे हो जायेंगे तब , बच्चे बड़े होजाएंगे तब , बच्चों का ब्याह हो जाएगा तब ,इस तब के इन्तजार में जीवन नौका कब और कहाँ अपनीं परम यात्रा पर निकल जाती है ,हमें भनक तक नहीं मिल पाती और हम उसकी यात्रा के मूक दर्शक बन जाते हैं । मन इन्द्रियों के साथ आत्मा यात्रा पर होता है ,हमारा प्यारा शरीर जिसे हम कौन सा सुख नहीं देना

गीता तत्त्व भाग -5

●● पढो और मनन करो ●● 1- प्रभु ! किसी की नज़र आप पर टिके या न टिके पर आपकी नज़र सब पर समभाव से होती है । 2-सत्यकी खोज इन्द्रियोंसे प्रारम्भ होती है पर इन्द्रियों तक सीमित नहीं । 3- जिस घडी तन - मन दोनों प्रभुको समर्पित हो गए उसी घडी अनन्य भक्तिकी लहर उठनें लगती है । 4- चलना तो होगा ही , सभीं चल रहे हैं ,ज्यादातर लोगोंकी चाल में चाह की उर्जा होती है जो भोग में रखती है पर बिना चाह की चाल प्रभु की ओर लेजाती है । 5-सभीं जल्दीमें हैं , सबको फ़िक्र है की इतना सारा काम इस छोटे से समयमें कैसे हो सकेगा ? 6 - वेश - भूषासे चाहे जो बन लो , लोगों द्वारा चाहे जो उपाधि प्राप्त कर को जैसे जगत गुरु , योगाचार्य  कृपाचार्य या शंकराचार्य लेकिन ह्रदयके रूपांतरण बिना भक्तिका रस पाना संभव नहीं और हृदयका रूपांतरण ही प्रभुका प्रसाद है जो किसी - किसी को मिल पाता है । ~~~ ॐ ~~~

गीता तत्त्व भाग - 4

# मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है , इन्द्रयाँ एवं बुद्धि राजस अहंकार से हैं ,मन विकारों का पुंज है और मन के बृत्तियों का द्रष्टा बन जाना ब्रह्म से एकत्व स्थापित करता है तथाऐसे योगी को कृष्ण गीता में ब्रह्मवित् योगी कहते हैं ।  # भागवत कहता है , मनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहंकारसे है और गीतामें प्रभु कृष्ण कहते हैं - इन्द्रियाणां मनः अस्मि लेकिन मनुष्य और परमात्माके मध्य यदि कोई झीना पर्दा है तो वह है मन ।   # मन जब गुणोंके सम्मोहन में होता है तब मनुष्यकी पीठ प्रभुकी ओर रखता है और जब गुणातीत होता है तब एक ऐसे दर्पणका काम करता है जिस पर जो तस्बीर होती है वह प्रभुकी तस्बीर होती है ।   # मनको निर्मल रखना ध्यान कहलाता है औए ध्यान बिधियोंके अभ्यासके माध्यमसे मनको निर्मल रखा जाता है । ध्यानके दो चरण हैं ,पहले चरण में इन्द्रियों एवं उनके बिषयों के सम्बन्ध को समझना होता है । इन्द्रिय -बिषय संयोग भोग है और गुणोंके प्रभावमें जो भी होता है उसे भोग कहते हैं । भोग सुख क्षणिक सुख होता है जिसमें दुःखका बीज पल रहा होता है ।मन ध्यानका दूसरा चरण तब प्रारंभ होता है जब पहला चरण पक जाता है , दूसरा चरण तब

गीता तत्त्व भाग - 3

गीता तत्त्व भाग - 3 1- प्राण वायुका नियंत्रण मन जो निर्मल रखता है । 2- गुणोंके प्रभावके कारण मनुष्यके स्वाभाव नें भिन्नताएँ दिखती हैं । 3- राग - द्वेष रहित मन परमात्माका घर होता है । 4- मोह और असंतोष आपस में मिलकर काम करते हैं । 5- बुद्धिमान व्यक्ति एक भ्रमर जैसा होता है जो सभीं जगहों से सार इकठ्ठा करता है । ~~~ ॐ ~~~