Posts

गीता तत्त्व भाग - 2

● गीता तत्त्व - 2●  ° गीता श्लोक -2.2°   " कुतः त्वा कुश्मलम् इदं बिषमे समुपस्थितम् " ।  ** प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से पूछ रहे है , "असमय में तुमको यह मोह कैसे हो गया ?"  ** अब हम देखते हैं कि प्रभु कैसे समझ रहे हैं कि अर्जुन मोहके सम्मोहनमें है ?   ● गीता अध्याय - 1 में अर्जुन के 23 श्लोक हैं , प्रभु इस अध्याय में कुछ नहीं बोलते ,धृत राष्ट्र का एक श्लोक है और संजय के भी 23 श्लोक हैं । अर्जुन ऐसी कौन सी बात बोलते हैं जो प्रभुको संकेत देती हैं कि वह मोह सम्मोहन में उलझा हुआ है ?  * अर्जुन युद्ध -क्षेत्र में दोनों सेनाओं को आमनें-सामनें देख कर अपनें सारथी श्री कृष्ण को कह रहे हैं , हे कृष्ण ! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले चलें ,मैं दोनों तरफ ले लोगों को एक बार देखना चाहता हूँ ।  * प्रभु रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा करते हैं और अर्जुन अपनें ही कुल और सगे संबंधियों को देखते हैं और बोलते हैं :-- * मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं । * मेरा मुख सूख रहा है । * मुझे रोमांच हो रहा है । * मेरे शरीरमें कम्पन हो रहा है । * मेरी त्वचामें जलन हो रही है । * मेरा मन भ्रमित हो

गीता तत्त्व भाग - 01

● गीता तत्त्व -दो शब्द ●   * गीता मूलतः अर्जुन और प्रभु श्री कृष्णके संबादके रूप में  ज्ञान -विज्ञानका एक ऐसा रहस्य है जिसमें भोग कर्मको रूपांतरित करके उसे कर्म योगका रूप देनेंकी पूरी मनोवैज्ञानिक गणित दी गयी है ।  * गीतामें अर्जुन अपनें 16 प्रश्न 86 श्लोकोंके माध्यम से एक के बाद एक उठाते हैं और प्रभु उनके प्रश्नों के सम्बन्ध में अपनें 574 श्लोकों को बोलते हैं ।   * गीताका प्रारम्भ धृतराष्ट्रके श्लोक से है जिसमें वे अपनें सहयोगी संजयसे पूछ रहे हैं :---  " धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः ।  मामकाः पाण्डवा: च एव किम् अकुर्वत संजय ।।"  < भाषांतर >  " हे संजय ! धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्रमें मेरे और पाण्डु के पुत्रोंनें क्या किया ? "  * गीता के 700 श्लोको में धृतराष्ट्रका यह एक मात्र श्लोक है और इनके सहयोगी संजयके अपनें श्लोक 39 हैं ।  * गीता - ज्ञान , गीता के 660 श्लोकों ( अर्जुन के 86 श्लोक + प्रभु के 574 श्लोक ) में ही सीमित होना चाहिए लेकिन यदि 01 श्लोक धृतराष्ट्रका और 39 श्लोक संजयके गीता से निकाल दिए जाएँ तो गीता अधूरा हो जाता है।  * गीता तत्त्व

संसार रहस्य - 1

●संसार रहस्य - 1● ●● गास्पेलमें संत जोसेफ कहते हैं : सृष्टिका प्रारम्भ शब्द रूप प्रभु है और भागवतमें ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्ण भी यही बात कहते हैं और इसकी पूरी गणित देते हैं ●● ^^ आइये ! चलते हैं इस संसार रहस्य में । <> संसारको समझनें केलिए हमारे पास पांच माध्यम ( tools ) हैं ; पांच ज्ञान इन्द्रियाँ जैसे आँख ,नाक ,कान , जिह्वा और त्वचा । आँखसे रूप - रंगको ,नाकसे गंधको , कानसे शब्दको , जिह्वासे रसको और त्वचासे संवेदनाको हम समझते हैं । <> पांच महाभूत और प्रत्येक महाभूतका अपना - अपना बिषय ( तन्मात्र ) होता है । पृथ्वी ,जल ,वायु , अग्नि और आकाश - ये पांच महाभूत हैं जिनमें पृथ्वीका गंध , जलका स्वाद , वायुका रूप , अग्निका तेज , आकाश का शब्द बिषय (तन्मात्र ) हैं । <> भागवतमें ऋषभ जी के नौ योगीश्वर पुत्र सम्राट निमि ( विदेह जनक ) तत्त्व ज्ञानके माध्यमसे प्रलयके समय मायाके कार्यको कुछ इस प्रकारसे ब्यक्त करते हैं । *वायु प्रलय कालमें पृथ्वीके गंधको चूस लेती है और गंधहीन पृथ्वी जलमें बदल जाती है अर्थात वायु पृथ्वीको जल में बदलती है । * जब प्रलय कालमें पृथ्वी जलमें

मूर्ति एक माध्यम

● मुर्तिके माध्यमसे ...  <> पिछले अंकमें आठ प्रकारकी मूर्तियोंको देखा गया जिनको भागवत दो भागों में देखता है ; एक चल मूर्ति होती है और दूसरी अचल ।  <> मुर्तिके माध्यमसे साधन करना अति सरल है और अति कठिन भी । साधना तन - मन का वह मार्ग है जो ब्रह्मके साथ एकत्व स्थापित करता है । ब्रह्मसे एकत्व स्थापित होना समाधि  है ,समाधि इन्द्रियों और मन -बुद्धिमें बह रही उर्जाके रुखको बदलती है। समाधि साधनाका फल है जहाँ साधक साकारका द्रष्टा - साक्षी होता है और इन्द्रियों ,मन -बुद्धिमें बह रही उर्जा निर्विकार होती है । समाधि वह द्वार है जिसके दरवाजे तक साकार की पहुँच होती है और जिसके अन्दर निराकार की अनुभूति । समाधिकी लोगोंनें परिभाषा बुद्धि स्तर पर बनाया है लेकिन उससे समाधि स्पष्ट नहीं होती । क्या विकल्प और क्या निर्विकल्प समाधि ,समाधि तो वह घडी है जब परम का द्वार खुलता है , साधक द्वार खुलना देखता है लेकिन क्षण भरमें वह समाधि में ऐसे खीच जाता है जैसे कोई ब्लैक होल किसी कोस्मिक बॉडी को खीच लेता है ।  * समाधिकी अनुभूति अब्यक्तातीत है उसे कोई आज तक ब्यक्त नहीं कर सके और जो कोशिश भी किये वे पूर्ण

मूर्तियोंके प्रकार

सन्दर्भ : भागवत : 11.27+12.20  <> मूर्तियाँ पूजा करनें की दृष्टि से 08 प्रकार की कही  गयी हैं :----- * पत्थर की * लकड़ी की * धातु की * मिटटी या चन्दन की * चित्रमयी * बालू या रेत की * मणि की * मन मयी ।  # इन मूर्तियों को दो भागों में विभक्त करते हैं ।  1- चल मूर्ति 2- अचल मूर्ति  1- चल मूर्ति :  ऐसी मूर्तियोंका प्रतिदिन आवाहन - विसर्जन करनें और न करनेंका विकल्प है ।  2- अचल मूर्ति : अचल मूर्तियोंका प्रति दिन आवाहन - विसर्जन नहीं करना  चाहिए ।  # बालू या रेतकी मूर्तिका प्रति दिन आवाहन - विसर्जन करना अनिवार्य है ।  # मिटटी , चन्दन , चित्र मयी मूर्तियोंको स्नान करना वर्जित है केवल मार्जन करना चाहिए ।  ~~~ ॐ ~~~

ब्रह्म और माया

● गीता ज्ञान-1● * पूरा ब्रह्माण्ड जो सीमारहित है जब रिक्त गो जाता है अर्थात जब इसमें जोई दृश्य नहीं रहता तब यह ब्रह्म होता है । * ब्रह्मसे ब्रह्ममें तीन गुणोंका एक माध्यम विकसित होता है जिसे ब्रह्मकी माया कहते हैं ।ब्रह्म और मायाको अलग नहीं किया जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि ब्रह्म ही माया है या माया ही ब्रह्म है ।ब्रह्मसे माया है , मायाका अस्तित्व ब्रह्म आधारित है लेकिन ब्रह्मका अस्तित्व माया आधारित नहीं है । * माया और काल रूप ब्रह्मसे महत्तत्त्वका निर्माण होता है जो मायासे मायामें एक ऐसा माध्यम है जिसमें जीव निर्माण करनेंकी क्षमता है । * आज वैज्ञानिक इस महत्तत्त्वको कण रूपमें प्रयोगशालामें पैदा करनेंकी चेष्ठामें लगे हुए हैं । ~~~ ॐ ~~~

कर्म से कृष्णमय कैसे हों ?

● कर्म से कृष्णमय कैसे हों ? 1- जो तुम्हारा कर्म है उसमें कर्म बंधनोंको समझो । 2- कर्म - बंधन वे तत्त्व हैं जो कर्म करनेंकी प्रेणना देते हैं । 3- कर्मका सम्बन्ध जबतक भोगसे हैं तबतक कर्म - बंधन होंगे (आसक्ति ,कामना ,क्रोध ,लोभ ,मोह , भय ,आलस्य और अहंकार ) । 4- जब कर्म कर रहे ब्यक्ति का कर्म ऊपर वताये गए भोग - तत्त्वों से प्रभावित नहीं होता तब वह कर्म , योग बन जाता है । 5 - कर्म - योगमें रहनें का अभ्यास योग सिद्धि में पहुंचाता है । 6 - योग सिद्धि से ज्ञानकी प्राप्ति होती है । 7- ज्ञान से वैराज्ञ मिलता है जहां भोग कर्म अकर्म सा दिखता है और भोग-अकर्म ,कर्म सा दिखता है । 8 - ज्ञानसे कर्म संन्यासमें कदम पड़ते हैं । 9 - कर्म संन्यासी ही योगी होता है । 10 - योगी की पीठ भोग की ओर और ऑंखें परमात्मा पर टिकी होती हैं । 11 - या निशा सर्व भूतानां , तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि , सा निशा पश्यतः मुने : ।। ** यहाँ आप देखें :--- गीता : 2.69 + 4.18 + 4.37 + 4.38 4.41 + 6.1-6.5 तक ~~~ ॐ ~~~