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मोह एवं वैराज्ञ

मोह के लक्षणों को हमनें पिछले अंक में देखा और गीता के कुछ और सूत्रों को देखते है जिनका सीधा सबंध मोह से है / गीता श्लोक – 2.52 यदा ते मोहकलिलं बुद्धिः ब्यतीतरिष्यति / तदा गन्तासि निर्वेदम् श्रोतब्यस्य श्रुतस्य च // इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से देखें ------ यदा ते बुद्धिः मोहकलिलं तदा … .... श्रुतस्य च श्रोतब्यस्य निर्वेदं गन्तासि अर्थात ---- प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं … ..... जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को भलीभाति पार कर जायेगी उस समय सुनें हुए और सुननें में आनेवाले इस लोक और पर लोक संबंधी सभीं भोगो से वैराज्ञ को प्राप्त हो जाएगा // इस सूत्र का निचोड़ कुछ इस प्रकार से देखा जा सकता है ----- मोह और वैराज्ञ एक साथ एक बुद्धि में नहीं बसते delusion and dispassion both do not exist together . गीता में आगे चल कर प्रभु कहते हैं … ... वैराज्ञ के बिना संसार को समझना संभव नहीं और वैरागी ही ज्ञानी होता है / ज्ञान उसे कहते हैं जो क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध कराये क्षेत्र है वह जो ज्ञेय है जो साकार है जैसे जीव का देह और देह में रहनें वाले स

गीता तत्त्वों में मोह

गीता तत्वों की परिचय श्रृंखला के अंतर गत अभीं तक हम कामना क्रोध एवं अहँकार को देख रहे थे और अब देखते हैं मोह को / गीता का प्रारम्भ अर्जुन के मोह से है और गीता यों तो कभीं साप्त नहीं होता लेकिन अर्जुन का आखिरी सूत्र 18.73 यः बताता है है कि अर्जुन का मोह समाप्त हो चुका है / गीता में मोह को समझनें के लिए कम से कम गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए ------- 1.28 1.29 1.30 2.52 4.35 18.72 18.73 4.38 10.3 14.8 14.10 x गीता सूत्र – 1.28 – 1.30 तक दृष्ट्वा इमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् / सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति // वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते // अपने स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा शरीर में कंपन एवं रोमांच हो रहा है … ... गांडीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते / न च शकनोम्यवस्थातुम् भ्रमतीव च में मनः // हाँथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है , त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है और मैं खडा रहनें में भी समर्थ नही हो पा रहा हूँ / अर्जुन गए तो थे इस पर – उस पार कि

कर्म योग समीकरण

गीता श्लोक – 2.59 , 2.60 , 3.6 , 3.7 श्लोक – 2.59 विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः / रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते // ऐसे लोग जो किसी तरह अपनी इंद्रियों को इस स्थिति में ले आते है जब उनकी इन्द्रियाँ बिषयों की ओर रुख नहीं करती लेकिन उनमें बिषयों की आसक्ति तो बनी रहती है पर स्थिर प्रज्ञ पुरुष जो प्रभु केंद्रित रहता है उसमें यह आसक्ति भी समाप्त हो गयी होती है / श्लोक – 2.60 यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः / इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः // आसक्ति जबतक है तबतक इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखेंगी श्लोक – 3.6 कर्म इन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् / इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार : स उच्यते // मूढ़ ब्यक्ति समस्त इंद्रियों को हठात बाहर – बाहर से नियोजित करके मन से बिषयों का चिंतन करत रहता है , ऐसा ब्यक्ति दम्भी होता है श्लोक – 3.7 यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन / कर्म इन्द्रियै : कर्म योगं असक्तः सः विशिष्यते // हे अर्जुन ! वह जो मन से इंद्रियों को समझ कर उनको बश में रखता है वह बिषयों में अनासक्त ब्य

गीता में भोग तत्त्वों की पहचान

गीता श्लोक – 3.7 य : तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन / कर्म इन्द्रियै : कर्मयोगम् असक्तः स : विशिष्यते // इस श्लोक को ऐसे पढ़ें तु अर्जुन यः मनसा इन्द्रियाणि नियम्य आसक्तः कर्म इंद्रियै : कर्मयोगम् आरभते सः विशिष्यते शब्दार्थ किन्तु हे अर्जुन ! जो मन से इंद्रियों को बश में करके अनासक्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है / भावार्थ नियोजित कर्म इंद्रियों से होश में किया गया कर्म ही कर्म योग है // Control of senses through developing correct understanding in the mind leads to Karma – Yoga . Actions performed in Karma – Yoga do not have influence of three natural modes such as goodness , passionate and dullness . A man is said to be Karma – Yogin whose actions do not have the energy of greed , aversion , loathed , bondage , clinging and ego आप इस श्लोक को गीता के श्लोक 6.24 , 6.26 , 6.29 , 6.30 , 2.60 , 2.61, 2.64 , 2.67 के साथ देखें // ==== ओम् ======

बिषय एवं इंद्रिय ध्यान

गीता श्लोक – 2.60 यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः / इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः // आसक्त प्रथम स्वभाववाली इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखती हैं [ Impetuous senses carry of mind by force ] गीता श्लोक – 2.67 इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते / तदस्य हरन्ति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि // जैसे जल में चल रही नाव को वायु हर लेती है वैसे ही बिषय से असक्त एक इंद्रिय प्रज्ञा को हर लेती है / [ When mind runs after roving senses , carries away the Pragya [ correct understanding ] ] गीता - तत्त्व श्रंखला में कामना क्रोध एवं अहँकार के सम्बन्ध में आज हम गीता के दो और सूत्रों को देखे , अब हमें इन दो सूत्रों को अपनें ध्यान में उतारना चाहिए / गीता में प्रभु श्री कृष्ण महाभारत युद्ध के माध्यम से अर्जुन के कर्म – मार्ग की दिशा को कुछ इस प्रकार से बदलनें की कोशिश कर रहे हैं जिससे वह भोग से सीधे योग में पहुँच कर वैराज्ञ की अनुभूति के माध्यम से परम गति की ओर चल पड़े / बिषय से इंद्रिय नियोजन इंद्रिय नियोजन से मन नियोजन मन नियोजन से बुद्धि नियोजन और बुद

गीता में आसक्ति कामना एवं ज्ञान सम्बन्ध

गीता श्लोक – 4.19 यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः / ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् तमाहु : पण्डितं बुधाः / जिसके सभीं कर्म बिना कामना - संकल्प होते हैं , जिसके सभी कर्म ज्ञान रूप अग्नि में भष्म हो गए होते हैं उस महापुरुष को ज्ञानी जन पंडित की संज्ञा देते हैं // इस श्लोक को ऐसे देखें ------- पंडित , बुध पुरुष एवं ज्ञानी एक ब्यक्ति के संबोधन हैं जिसके सभीं कर्म बिना कामना एवं संकल्प के होते हैं अर्थात ---- कामना - संकल्प रहित कर्म ही कर्म योग है जिसका फल है ज्ञान Actions without desire and determination lead to Karma – Yoga which leads to wisdom . आप यहाँ गीता श्लोक – 18.49 , 18.50 को भी देखें जो इस प्रकार हैं ------ असक्तः बुद्धिः सर्वत्र जीतात्मा विगतस्पृह : नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य सिद्धि मिलती है Action having no attachment leads to perfection of Karma – Yoga सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध में समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा नैष्कर्म – सिद्धि ही ज्ञान – योग

कामना क्रोध अहँकार एवं गीता

गीता सूत्र – 18.17 यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते / हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते // वह जिसमें कर्ता भाव की सोच नहीं है , जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों एवं कर्मों के बंधनों से मुक्त है , वह ब्यक्ति सब लोकों का हनन करने के बाद भी मारनें के पापों से मुक्त होता है He who does not have self sense and whose intelligence is free from passion , he is a liberated man . गीता सूत्र – 3.27 प्रकृते : क्रियमाणानि गुणै : कर्माणि सर्वशः / अहँकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते // कर्म कर्ता गुण हैं और मैं कर्ता हूँ की सोच अहँकार की छाया है Actions are performed by the three natural modes , man is not the performer but he who has the feeling that he is the actual doer , his feeling is due to his self sense – energy . ऊपर यहाँ गीता के दो सूत्र दिए गए जिनका सम्बन्ध कर्म , अहँकार , गुण एवं बुद्धि समीकरण से है / गीता कर्म – योग की गणित बताता है और यह भी कहता है - तुम यह न सोचो की जो कर्म तुमसे हो रहा है वह तुम कर रहे हो , तुम तो यंत्रवत हो जिसको तीन गुणों मे