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गीता की यात्रा

भाग - 05 ध्यान निर्वाण का मार्ग है क्या है , ध्यान ? ध्यान वह है जो ----- इस संसार में एक और संसार दिखाए ......... स्वयं से मिलाये ....... प्रकृति - पुरुष के रहस्य को स्पष्ट रूप से दिखाए ..... और यह दिखाए की :::::::::::: देख ! यह सत्य है और यह असत है और ....... दोनों जिस से हैं वह है ----- परम सत्य ॥ क्या ऐसा किसी के साथ होता भी होगा या यों ही एक कल्पना सा है ? यह होता है और आप के साथ भी हो सकता है , ज़रा आप सोचना इस बात पर ======== आप BMW CAR में बैठ कर गुरुद्वारे गुरु नानकजी के बचनों को सुननें जाते हैं , क्या कभी आप के अन्दर ऐसा भी विचार आया की ======= यदि आप गुरुद्वारे में बैठे - बैठे नानकजी साहिब बन गए तो आप की कार का क्या होगा ? जिस दिन ऐसा विचार आप के अन्दर प्रवेश करेगा उस दिन आप गुरुद्वारा जाना तो बंद कर ही देंगे , लेकीन आप बच नहीं पायेंगे , भूल जायेंगे इस कार को , इस संसार को और इस संसार में जो आप को दिखनें लगेगा , वह कुछ और ही होगा जिसको .... ग्रन्थ साहिब ---- गीता ..... उपनिषद् ..... कहते हैं ..... परम सत्य ॥ कबीरजी साहिब को हम सुनते हैं नानकजी साहिब को हम लोग सुनते हैं मी

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भाग - 04 ज्ञान मोह की दवा है --- गीता - 4.34 , 4.35 प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं : जा तूं किसी सत गुरु की शरण में , वहाँ जो ज्ञान तेरे को मिलेगा वह तेरा मोह दूर करेगा ॥ जैसा मरीज , वैसा चिकित्सक : गीता - अध्याय तीन के प्रारम्भ में अर्जुन का दूसरा प्रश्न है ---- हे प्रभु ! जब ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझको इस युद्ध - कर्म में क्यों उतारना चाहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में केवल कर्म की बात प्रभु करते हैं और तीसरी अध्याय के अंत में अगले प्रश्न के उत्तर में काम की चर्चा करते हैं , वहाँ ज्ञान के नाम पर प्रभु लगभग चुप सा रहते हैं लेकीन गीता श्लोक - 4.34 से 4.42 तक में प्रभु कहते हैं ----- तेरा मोह दूर हो सकता है , लेकीन तेरे को किसी सत गुरु की तलाश करनी पड़ेगी । तेरा संदेह तेरे अज्ञान का फल है और अज्ञान ज्ञान से दूर होता है । ज्ञान योग सिद्धि पर मिलता है ॥ प्रभु ऐसा नहीं करते जैसा हम -आप करते हैं ; बेटा / बेटी यदि दुखी हैं तो उनको तीन पहिये वाली बनी बनायी सायकिल ला देते हैं और बेटा / बेटी को क्षणिक सुख मिल जाता है और हम भी खुश हो लेते हैं । प्रभु अर्जुन के संदेह को कम नहीं करना चाहते ,

गीता की यात्रा

भाग - 03 कर्म के माध्यम से ....... बहुत से नाम हैं ----- कोई क्रिया - योग कहता है ..... कोई कर्म - योग कहता है .... कोई समभाव - योग कहता है .... लेकीन नाम से क्या होगा ? होनें से होता है ॥ कर्म के बिना एक पल के लिए भी कोई जीव धारी नहीं रह सकता । कर्म के लिए मृत्यु - लोक में आना होता है , अन्यथा यहाँ क्या कुछ और है जिसके लिए बार - बार आना पड़ता है । कर्म जबतक कामना से साथ है .... तबतक हम भ्रमित हैं .... और जिस घड़ी कर्म और कामना का रुख एक दूसरे के बिपरीत हो जाता है , समझो अब और अधिक दूर नहीं चलना पड़ेगा , परम धाम आप की ओर खुद चल कर आ रहा है । कामना और कर्म के संग को समझनें के लिए ही तो यहाँ हम सब का आना होता है लेकीन ..... यह बात हम गर्भ से बाहर आते -आते भूल जाते हैं । गीता कहता है : जबतक काम - कामना जबतक क्रोध - लोभ जबतक अहंकार - मैं जबतक मोह - भय .... का प्रभाव मन - बुद्धि पर है ---- प्रभु को भूले हो और ...... रोजाना मंदिर जाते हो प्रभु के लिए नहीं ..... अपनें लिए ॥ जब ..... गुण तत्वों का प्रभाव मन - बुद्धि पर नहीं होता ...... तब .... आप को मंदिर नहीं जाना पड़ता ..... प्रभु खुद आते है

गीता की यात्रा

भाग - 02 पिछले अंक में प्रभु की ओर रुख करनें के लिए स्थूल रूप में पांच बातें बतायी गयी अब हम यहाँ उन बातों में भक्ति को यहाँ ले रहे हैं ॥ भक्ति क्या है ? क्या गायत्री मंत्र का सुबह - सुबह स्नान कर के जप करना भक्ति है ? क्या सुबह गुरुद्वारे में पहुंचना भक्ति है ? क्या सुबह - सुबह शिव मंदिर में बेल पत्र चढ़ाना भक्ति है ? क्या देव स्थान - तीर्थ की यात्रा में भक्ति है ? क्या चाह की ऊर्जा से मंदिर जाना भक्ति है ? क्या द्वेष - ऊर्जा से मंदिर जाना भक्ति है ? भक्ति शब्द तो रहेगा लेकीन भक्ति की हवा वहाँ नही होती जहां ---- मन में राग हो ..... मन में संदेह हो .... मन में क्रोध हो .... मन में द्वेष भरा हो ..... मन में मोह हो ..... मन में कामना का निवास हो .... मन में लोभ हो ..... मन में अहंकार का डेरा हो ..... भक्ति है वहाँ , जहां ------ न तन हो ..... न मन हो .... बुद्धि हो , प्रभु पर स्थिर और ... रात - दिन एक पर नज़र टिकी हो .... इन्द्रियाँ साक्षी भाव में डूबी हों ..... राह - राह कर ह्रदय में एक लहर उठती हो जो ---- उस पार की एक झलक दिखलाती हो ..... जहां दो नहीं ; भक्त और भगवान् नहीं , मात्र ..

गीता की यात्रा ------

भाग - 01 प्रभु अर्जुन से कहते हैं :-------- अर्जुन ! मुझको समझनें के दो मार्ग हैं - कर्म और ज्ञान ॥ कर्म , ध्यान , तप , भक्ति और ज्ञान - पांच मार्गों के लोग यहाँ देखे जाते हैं , वैसे और भी कई मार्ग हैं प्रभु की ओर रुख करनें के । मार्ग एक राह है जो सीधे आगे की ओर ले कर चलता चला जाता है लेकीन ज्यादातर लोग सीधे नहीं चल पाते , उनको एक चौराहा पर ही घूमनें में मजा आता है और वह चौराहा होता है ---- भोग का ॥ गुणों की जाल सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुयी है ; इस से वही बच पाता है जो गुनातीत हो जाता है और ...... गुनातीत मात्र एक प्रभु हैं और न दूजा , कोई ...... । वह जो कर्म के माध्यम से ...... वह जो ध्यान के माध्यम से ... वह जो तप के माध्यमसे ..... या वह जो किसी और माध्यम से , मायामुक्त हो जाता है , वह प्रभु तुल्य योगी सीधे परम धाम में निवास करता है । जब तक ...... योगी को यह मालूम रहता है की वह कुछ कर रहा है जो सिद्धि दिलानें वाला है , तबतक वह योगी गुमराह रहता है , उसकी यात्रा रुक गयी होती है और .... जब छोटे बच्चे की भांति अबोध अवस्था जैसी स्थिति में पहुंचता है अर्थात ...... लोग समझते हैं यह

इसे समझो

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहे हैं : गुण कर्म करता हैं , करता भाव अहंकार की छाया है ॥ गुण स्वभाव का निर्माण करते हैं , स्वभाव में कर्म करनें की उर्जा होती है ॥ गीता यह भी कहता है : कर्म में कर्म तत्वों की पहचान , मनुष्य को भोगी से योगी बना देती है ॥ कर्म - तत्वों की जब पकड समाप्त हो जाती है और ..... कर्म ---- बिना कामना ..... बिना क्रोध ..... बिना लोभ ..... बिना मोह ..... बिना भय ..... बिना आलस्य , और बिना अहंकार के प्रभाव में पहले की भाँती होते रहते हैं , तब ..... वह कर्म कर्म - योगी के रूप में होता है और ..... उसके पीठ पीछे भोग और आँखों में प्रभु का निवास होता है ॥ गीता के एक -एक सूत्रों की ऊर्जा में ..... आत्मा के रूप में प्रभु को देखो ॥ आज आप को प्रभु का प्रसाद मिल गया है .... कल की बात कौन जानता है ॥ ==== ॐ =====

इसे भी देखो

गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न है [ गीता श्लोक - 2.54 ] स्थिर प्रज्ञयोगी की पहचान क्या है ? और दूसरा प्रश्न है [ गीता श्लोक - 14.21 ] गुणातीत - योगी की पहचान क्या है और कोई कैसे गुणातीत बन सकता है ? पहले प्रश्न के सन्दर्भ में प्रभु अध्याय - 02 में चौदह श्लोकों के माध्यम से स्थिर प्रज्ञ को स्पष्ट करते हैं और दुसरे प्रश्न के सन्दर्भ में प्रभु 50 श्लोकों को बोलते हैं [ 14.22 से 16.24 तक ] आइये ! मैं आप को इन दो प्रश्नों के सन्दर्भ में प्रभु द्वारा बोले गए 64 श्लोकों के सारांश को दिखाता हूँ ॥ भोग से योग में उतरना ------ योग में स्थिर प्रज्ञता में बसेरा करना ---- धीरे - धीरे यहाँ से बैराग्य की जड को मजबूत करना ---- और तब वह योगी का बैराग्य - अवस्था में उस आयाम में प्रवेश करता है ....... जो आयाम है ---- गुणातीत का ॥ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ..... प्रभु एक मात्र गुणातीत है और .... गुणातीत - गीता योगी पल - दो पल में ही ... परम गति में प्रवेश पा जाता है ॥ क्या आप हैं तैयार , इस यात्रा के लिए ? आज इतना ही .... आज प्रभु श्री कृष्ण आप को सत - बुद्धि में स्थिर रखें ॥ ==== ॐ ====