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गीता मर्म -12

मोहन प्यारे हमें कुछ साल सूडान [ अफ्रिका ] में रहनें का मौका मिला था । वहाँ के लोग सुन्नी मुस्लिम हैं । जब मैं कन्हैया की फोटो लोगों की गाड़ियों में लगी देखी तो एक दिन अपनें एक सूडानी दोस्त से पूछा - आप क्यों इस बच्चे की फोटो अपनें कार में लगा रखी है ? उत्तर बहुत ही सीधा था -- उनका कहना था , यह बच्चा है हिन्दुस्तानी और बहुत ही खुबसूरत है , इसलिए हमलोग इसे लगाते हैं , अपनी - अपनी कारों में । भक्त लोग मोहन प्यारे को अपनें - अपनें दिल में बिठा के रखना चाहते हैं और उनको यह पता शायद न हो की उनका मोहन प्यारे कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध - द्वार पर मोह - मुक्त की दवा गीता के रूप में बनाते हैं , अर्जुन के मोह को दूर करनें के लिए । मोहन प्यारे एक तरफ सांख्य - योगी के रूप में समभाव की शिक्षा देते हैं और दूसरी तरफ गोपियों के साथ रास रचाते हैं । मोहन प्यारे एक तरफ सारथी बन कर अर्जुन का रथ चलाते हैं और दूसरी तरफ माखन चोर के रूप में गोपियों का दिल जीतते हैं । मोहन प्यारे हैं एक लेकीन अनेक रूपों में , हमें और क्या चाहिए ? जो रूप भा जाए उसे अपनाना ही भक्ति - योग है । ===== ॐ ======

गीता मर्म - 11

गीता श्लोक - 7.2 यह श्लोक अर्जुन के प्रश्न - 07 के सन्दर्भ में बोला गया है । अर्जुन का प्रश्न है -- ऐसे योगी जिनका योग खंडित हो जाता है , उनकी गति कैसी होती है ? गीता सूत्र 7.2 में प्रभु कह रहे हैं ..... अब मैं तेरे को ऐसा ज्ञान बतानें जा रहा हूँ जिसको जाननें के बाद और जाननें को कुछ बचता नहीं और यह ज्ञान सविज्ञान है । पहले हम इस सुत्रके सन्दर्भ में ज्ञान - विज्ञान को समझते हैं ........ ज्ञान क्या है ? योग सिद्धि पर ज्ञान मिलता है [ गीता - 4.38 ], क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है [ गीता - 13.3 ] और क्षेत्र है , मनुष्य की देह एवं इसका ज्ञाता अर्थात प्रभु है , क्षेत्रज्ञ [ गीता - 13.2 ] , तो आइये देखते हैं अध्याय - 07 के ज्ञान - विज्ञान को । अध्याय सात में कुल 30 श्लोक हैं जिमें प्रभु बताते हैं ...... [क] मैं कौन हूँ ? [ख] भूतों की रचना - रहस्य क्या है ? [ ग] ज्ञान प्राप्त योगी दुर्लभ हैं ॥ [क] मैं कौन हूँ ? यहाँ प्रभु कहरहे हैं --- संसार का सूत्र धार , बीज , जीवन , आदि - अंत मैं हूँ , मैं सूर्य -चन्द्रमा का प्रकाश । पृथ्वी की सुगंध , अग्नि की ऊर्जा , कामना रहित बल , धर्म के अनुकूल

गीता मर्म - 10

कर्म त्याग क्या है ? पहली बात जो यहाँ समझनी चाहिए , वह है , त्याग क्या है ? लोग आम तौर पर कहते हैं ..... मैं शराब पीनी छोड़ दी....... मैं सिगरेट पीली छोड़ दी .... मैं शक्कर खानीं छोड़ दी .... आखिर यह छोड़ना क्या है ? मनुष्य एक ऐसा जीव है जो ----- कभी कुछ पकड़ता है और फिर कभी उसे छोड़ता है , मनुष्य की यह आदत क्यों है ? अन्य जीवों का मन - बुद्धि इतना नहीं सोचता जितना मनुष्य का सोचता है । मनुष्य की सोच मनुष्य में संदेह पैदा करता है और संदेह मनुष्य को कहीं रुक्नें नही देता । त्याग किया नहीं जाता , यह स्वतः हो जाता है , जो काम मन - बुद्धि स्तर पर किया जाता है उसमें अहंकार की गंध होती है और त्याग पभु का द्वार है । गीता कर्म के माध्यम से त्यागी , बैरागी , ग्यानी एवं गुनातीत योगी बनाना चाहता है और ऐसा योगी स्वतः प्रभु मय होता है । भोग कर्मों में भोग तत्वों की पकड़ का न होना उस कर्म को कर्म योग बना देता है । कर्म जब कर्म - योग बन जाता है तब वह योगी आसक्ति , कामना , संकल्प एवं अहंकार रहित स्थिति में कर्म करता है और इस दशा में वह यह नहीं समझता की ---- वह कर्म करता है .... वह समझता है की ----- गुण

गीता मर्म - 09

गीता की सीधी गणित ## कर्म त्यागी कभी प्रभु मय नहीं हो सकता ॥ ## घर से जिम्मेदारियों से भाग कर संन्यासी का चोंगा धारण किया हुआ संन्यासी कभी प्रभु मय नही होता ॥ ## कर्म योग और कर्म संन्यास एक है ॥ ## कर्म योग एवं त्याग एक है ॥ ## कर्म हो लेकीन उसके होनें में कोई बंधन न हो , कोई कारण न हो तो वह कर्म , योग है ॥ ## आसक्ति रहित कर्म , मुक्ति पथ है और ज्ञान योग की परा निष्ठा भी ॥ गीता गणित के छः सूत्रों को आप अपनें बुद्धि में रख सकते हैं और समय - समय पर इन बातों को मनन के लिए अपना सकते हैं । इतनी सी बात आप को समझनी है ------ गीता को अपनाना एक ऐसा ब्यापार है जिसमें कुछ खोना नहीं है , कुछ पाना ही है । गीता को अपना कर आप उसे खो देंगे जो आप को बेचैन कर रखा है । गीता में अपनें को घुलानें पर आप कृष्ण मय हो कर ---- क्षेत्र क्षेत्रज्ञ को समझ कर ----- परमा नन्द में हो सकते हैं , तो क्या आप अपनें जीवन के कुछ क्षण गीता को दे सकते हैं ? ॥ ===== ॐ ===== ॥

गीता मर्म - 08

गीता के द्वार अनेक गीता में प्रवेश करना अति आसान है क्योंकि गीता मात्र एक ऐसा साधना श्रोत है जिसमें एक नहीं अनेक द्वार हैं जैसे ध्यान , भक्ति , कर्म योग , सांख्य - योग आदि । गीता में प्रभु कभी साकार प्रभु के रूप में बोलते हैं तो कभी निराकार प्रभु के रूप में और यह बुद्धि केन्द्रित लोगों के लिए एक संदेह का श्रोत बन जाता है । गीता में प्रभु स्वयं को परमेश्वर कहते हैं और कभी कहते हैं -- जा तूं उस परमेश्वर की शरण में जो सब के ह्रदय में है और अपनी माया से सब को यंत्रवत घुमाता रहता है । गीता का परमात्मा न कुछ देता है न कुछ लेता है , वह एक द्रष्टा है और गीता का परमेश्वर सब कुछ देनें वाला है , उसके बिना कुछ संभव नहीं । बुद्धि केन्द्रित लोगों के लिए इस प्रकार की बातें भ्रम पैदा करती हैं लेकीन जब आप गीता को अपनाकर बार - बार पढेंगे तो सब कुछ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा । गीता के अनेक द्वारों में एक द्वार आप के लिए भी है , जब दिल करे आप उसके माध्यम से गीता में प्रवेश कर सकते हैं । गीता तत्त्व विज्ञान के माध्यम से आप सादर आमंत्रित हैं ॥ ॥ ====== ॐ ==== ॥

गीता मर्म - 07

कौन स्वप्न नहीं देखता ? गुनातीत योगी स्वप्न नहीं देखता ॥ भगवान् महाबीर एक शब्द प्रयोग करते थे - निर्ग्रन्थ ; महाबीर का निर्ग्रन्थ योगी , गीता का गुनातीत योगी है । निर्ग्रन्थ योगी वह है ------ ** जिसकी इन्द्रियाँ उसके इशारे पर चलती हों । ** जिसके मन की भूत काल एवं वर्त्तमान काल की सोच की कोई लकीर न हो , मन निर्मल हो । ** जिसकी बुद्धि संदेह रहित हो । ** जो सात्विक श्रद्धा से परिपूर्ण हो । ** जो प्रभु का दीवाना हो चुका हो । ** जिसको प्रकृति में प्रभु के अलावा और कुछ न दिखता हो । खोजना है तो प्रभु को ऐसे खोजो जैसे एक मित्र अपनें मित्र को खोजता है .... प्रभु की लहर मिलते ही नमक के पुतले की तरह अपनें को उनमें घुला दो ..... प्रकृति में जो आप को मंत्र मुग्ध कर दे , बस उसके ऊपर अपनें को संदेह रहित हो कर अर्पित कर दो ..... पंडित हरी प्रसाद की बासुरी में आप को कुछ - कुछ प्रभु श्री कृष्ण की बासुरी की धुन मिलेगी , आप जरुर सुनें ... प्रभु तो आप के लिए इंतज़ार कर रहे हैं लेकीन आप को मौका मिले तब न ...... चौबीस घंटों में कुछ पल अपनें मन को प्रभु पर केन्द्रित करनें से क्या नुकशान होगा ? ====== ॐ =

गीता मर्म - 07

दो हाँथ की ताली या एक हाँथ की ------ अपनें दोनों हांथों से ताली बजाकर देखना और यदि कहीं आप को किसी दरिया के किनारे एकांत में यह काम करनें का मौक़ा मिले तो चुकना नहीं । ताली के साथ प्रारम्भ से अंत तक रहना और जिसमें आवाज बिलीन हो रही हो उसे जरूर पकडनें की कोशिश करना । ध्वनि चाहे कोई भी क्यों न हो , सब का अंत ॐ में होता है । गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -- एक ओंकार , मैं हूँ , अब्यक्त अक्षर , मैं हूँ , आकाश में शब्द , मैं हूँ । दो के मध्य जो घटित होता है उसका प्रमाण होता है और जो एक के साथ घटित हो , उसका प्रमाण क्या हो सकता है ? जी हाँ उसका भी प्रमाण है - अस्तित्व और जो सब का अदि अंत हो , गीता उसे परमात्मा कहता है । सूफी एवं झेंन परम्परा में एक हाँथ की ताली , ध्वनि रहित ध्वनि , दरवाजा रहित दरवाजा [gateless gate ] जैसे शब्द देखनें को मिलते हैं और इन सब की अनुभूति का नाम ही गीता का ब्रह्म है जो तब भी है जब सब कुछ समाप्त हो चुका होता है , जो तब भी था जब सब कुछ आनें वाला ही था जो आज भी है जब सब कुछ है और जो सब के होनें का बीज है । एक हाँथ की ताली की अनुभूति के लिए ही दो हांथों की ताली ह