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गीता तत्त्व भाग - 4

# मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है , इन्द्रयाँ एवं बुद्धि राजस अहंकार से हैं ,मन विकारों का पुंज है और मन के बृत्तियों का द्रष्टा बन जाना ब्रह्म से एकत्व स्थापित करता है तथाऐसे योगी को कृष्ण गीता में ब्रह्मवित् योगी कहते हैं ।  # भागवत कहता है , मनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहंकारसे है और गीतामें प्रभु कृष्ण कहते हैं - इन्द्रियाणां मनः अस्मि लेकिन मनुष्य और परमात्माके मध्य यदि कोई झीना पर्दा है तो वह है मन ।   # मन जब गुणोंके सम्मोहन में होता है तब मनुष्यकी पीठ प्रभुकी ओर रखता है और जब गुणातीत होता है तब एक ऐसे दर्पणका काम करता है जिस पर जो तस्बीर होती है वह प्रभुकी तस्बीर होती है ।   # मनको निर्मल रखना ध्यान कहलाता है औए ध्यान बिधियोंके अभ्यासके माध्यमसे मनको निर्मल रखा जाता है । ध्यानके दो चरण हैं ,पहले चरण में इन्द्रियों एवं उनके बिषयों के सम्बन्ध को समझना होता है । इन्द्रिय -बिषय संयोग भोग है और गुणोंके प्रभावमें जो भी होता है उसे भोग कहते हैं । भोग सुख क्षणिक सुख होता है जिसमें दुःखका बीज पल रहा होता है ।मन ध्यानका दूसरा चरण तब प्रारंभ होता है जब पहला चरण प...

गीता तत्त्व भाग - 3

गीता तत्त्व भाग - 3 1- प्राण वायुका नियंत्रण मन जो निर्मल रखता है । 2- गुणोंके प्रभावके कारण मनुष्यके स्वाभाव नें भिन्नताएँ दिखती हैं । 3- राग - द्वेष रहित मन परमात्माका घर होता है ...

गीता चालक नहीं संचालक है

● गीता वैराग्यका द्वार खोलता है ●  <> गीता एक संचालक है चालक नहीं ;  संचालक ( operator ) उसे कहते हैं जो चलनें वाले और उन नियमोंको समझता है जो चलनें वालेको चला रहे हैं तथा चालक उसे कहते हैं जो चलाना तो जानता है लेकिन चलनें में जो नियम काम कर रहे होते हैं , उनके सम्बन्ध में अनभिज्ञ होता है ।अंगरेजी में दो शब्द है -operator एवं driver ; ओपरेटर संचालक केलिए और ड्राइवर चालक केलिए प्रयोग किया जाता है ।  <> गीता कहता है - कर्म किये बिना कोई भी जीवधारी एक पल भी नहीं रह सकता चाहे वह देव हो , दानव हो , मनुष्य हो या फिर अन्य कोई जीव यह तो एक सूत्र है जो जीवोंके जीवनका चालक है लेकिन सभीं जीव एक जैसे तो नहीं । मनुष्यके पास वह उर्जा है जो उसे प्रश्नोंमें उलझा कर रखती है और एक पल चलता हुआ मनुष्य रुक जाता है ,सोचनें लगता है की बाएं चलूँ या दायें और यह उसकी स्थिति -ना या हाँ के मध्य की स्थिति होती है ।ना और हाँ के मध्य की स्थिति में जब मन - बुद्धि तंत्र होता है तब उसमें संदेह , भ्रम और समभाव इन तीन में से कोई एक उर्जा बह रही रही होती है । गीता कहता है , संदेह तामस गुण एवं क...

गीता तत्त्व भाग - 2

● गीता तत्त्व - 2●  ° गीता श्लोक -2.2°   " कुतः त्वा कुश्मलम् इदं बिषमे समुपस्थितम् " ।  ** प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से पूछ रहे है , "असमय में तुमको यह मोह कैसे हो गया ?"  ** अब हम देखते हैं कि प्रभु कैसे समझ रहे हैं कि अर्जुन मोहके सम्मोहनमें है ?   ● गीता अध्याय - 1 में अर्जुन के 23 श्लोक हैं , प्रभु इस अध्याय में कुछ नहीं बोलते ,धृत राष्ट्र का एक श्लोक है और संजय के भी 23 श्लोक हैं । अर्जुन ऐसी कौन सी बात बोलते हैं जो प्रभुको संकेत देती हैं कि वह मोह सम्मोहन में उलझा हुआ है ?  * अर्जुन युद्ध -क्षेत्र में दोनों सेनाओं को आमनें-सामनें देख कर अपनें सारथी श्री कृष्ण को कह रहे हैं , हे कृष्ण ! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले चलें ,मैं दोनों तरफ ले लोगों को एक बार देखना चाहता हूँ ।  * प्रभु रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा करते हैं और अर्जुन अपनें ही कुल और सगे संबंधियों को देखते हैं और बोलते हैं :-- * मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं । * मेरा मुख सूख रहा है । * मुझे रोमांच हो रहा है । * मेरे शरीरमें कम्पन हो रहा है । * मेरी त्वचामें जलन हो रही ह...

गीता तत्त्व भाग - 01

● गीता तत्त्व -दो शब्द ●   * गीता मूलतः अर्जुन और प्रभु श्री कृष्णके संबादके रूप में  ज्ञान -विज्ञानका एक ऐसा रहस्य है जिसमें भोग कर्मको रूपांतरित करके उसे कर्म योगका रूप देनेंकी पूरी मनोवैज्ञानिक गणित दी गयी है ।  * गीतामें अर्जुन अपनें 16 प्रश्न 86 श्लोकोंके माध्यम से एक के बाद एक उठाते हैं और प्रभु उनके प्रश्नों के सम्बन्ध में अपनें 574 श्लोकों को बोलते हैं ।   * गीताका प्रारम्भ धृतराष्ट्रके श्लोक से है जिसमें वे अपनें सहयोगी संजयसे पूछ रहे हैं :---  " धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः ।  मामकाः पाण्डवा: च एव किम् अकुर्वत संजय ।।"  < भाषांतर >  " हे संजय ! धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्रमें मेरे और पाण्डु के पुत्रोंनें क्या किया ? "  * गीता के 700 श्लोको में धृतराष्ट्रका यह एक मात्र श्लोक है और इनके सहयोगी संजयके अपनें श्लोक 39 हैं ।  * गीता - ज्ञान , गीता के 660 श्लोकों ( अर्जुन के 86 श्लोक + प्रभु के 574 श्लोक ) में ही सीमित होना चाहिए लेकिन यदि 01 श्लोक धृतराष्ट्रका और 39 श्लोक संजयके गीता से निकाल दिए जाएँ त...

संसार रहस्य - 1

●संसार रहस्य - 1● ●● गास्पेलमें संत जोसेफ कहते हैं : सृष्टिका प्रारम्भ शब्द रूप प्रभु है और भागवतमें ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्ण भी यही बात कहते हैं और इसकी पूरी गणित देते ...

मूर्ति एक माध्यम

● मुर्तिके माध्यमसे ...  <> पिछले अंकमें आठ प्रकारकी मूर्तियोंको देखा गया जिनको भागवत दो भागों में देखता है ; एक चल मूर्ति होती है और दूसरी अचल ।  <> मुर्तिके माध्यमसे साधन करना अति सरल है और अति कठिन भी । साधना तन - मन का वह मार्ग है जो ब्रह्मके साथ एकत्व स्थापित करता है । ब्रह्मसे एकत्व स्थापित होना समाधि  है ,समाधि इन्द्रियों और मन -बुद्धिमें बह रही उर्जाके रुखको बदलती है। समाधि साधनाका फल है जहाँ साधक साकारका द्रष्टा - साक्षी होता है और इन्द्रियों ,मन -बुद्धिमें बह रही उर्जा निर्विकार होती है । समाधि वह द्वार है जिसके दरवाजे तक साकार की पहुँच होती है और जिसके अन्दर निराकार की अनुभूति । समाधिकी लोगोंनें परिभाषा बुद्धि स्तर पर बनाया है लेकिन उससे समाधि स्पष्ट नहीं होती । क्या विकल्प और क्या निर्विकल्प समाधि ,समाधि तो वह घडी है जब परम का द्वार खुलता है , साधक द्वार खुलना देखता है लेकिन क्षण भरमें वह समाधि में ऐसे खीच जाता है जैसे कोई ब्लैक होल किसी कोस्मिक बॉडी को खीच लेता है ।  * समाधिकी अनुभूति अब्यक्तातीत है उसे कोई आज तक ब्यक्त नहीं कर सके और जो...