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गीता में दो पल - 9

* 24 तत्त्वों का बोध साकार उपासना है । 10 इन्द्रियाँ , 5 महाभूत , 5 तन्मात्र और 4 अन्तः करण ( मन + बुद्धि + चित्त + अहंकार ) - ये हैं साधना के 24 तत्त्व । * ऊपर ब्यक्त 24 तत्त्वों की साधन सगुन ब्रह्म की साधना है । * जब यह साधना पकती है तब वह साधक स्वतः निर्गुण ब्रह्म - साधना में होता है । * निर्गुण ब्रह्म साधक,काल का बोधी होता है । * काल का बोधी माया का द्रष्टा होता है । * ऐसे साधक दुर्लभ होते हैं । ~~~ ॐ ~~~

गीता में दो पल - 8

<> महतत्त्व क्या है ? भाग - 2 <>  ● पिछले अंक में महतत्त्व सम्बंधित कुछ बातों में मूल बात थी कि महतत्त्व प्रभु से प्रभु में एक ऐसी सनातन उर्जा का माध्यम है जो ब्रह्माण्ड के दृश्य वर्ग के होनें का मूल श्रोत है ।  <> अब आगे <>  ● भागवत : स्कन्ध - 2 , 3 और 11 ।  * भागवत के ऊपर ब्यक्त तीन स्कंधों में ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल मुनि और प्रभु कृष्ण के सृष्टि - विज्ञान को ब्यक्त किया गया है ।  * सांख्य -योग आधारित ब्रह्मा ,मैत्रेय , कपिल एवं कृष्ण द्वारा ब्यक्त सृष्टि - विज्ञान कहते हैं :---  <> प्रभु से प्रभु में तीन गुणोंका एक सनातन माध्यम है जिसे माया कहते हैं ।  <> प्रभुका एक रूप कालका भी है जो माया में गति एवं गतिके माध्यमसे परिवर्तन लाता रहता है ।  <> सृष्टि में सबसे पहले मूल तत्वों की उत्पत्ति होती है जिन्हें सर्ग कहते हैं ।  <> सर्गों से ब्रह्मा सृष्टि का विस्तार करते हैं जिसे विसर्ग  कहते हैं ।  <> सर्गों की उत्पत्ति ही मूल तत्वों की उत्पत्ति है <>  ● माया पर निरंतर काल का प्रभाव पड़ता रहता है और इस प्रभाव में माया से महतत्व

गीता में दो पल -7

प्रभु से प्रभु में माया है जो प्रभु की ही एक उर्जा का माध्यम है और जिससे एवं जिसमें वे सभीं मूल तत्त्व है जिनसे दृश्य वर्ग का होना , रहना और समाप्त होना का चक्र चलता रहता है। 1-  संसार में जो परिवर्तन होता दिखता है , वह समय के होनें की सूचना है । 2- समय को प्रभु का एक ऐसा माध्यम है जिसके होनें की कल्पना प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों से किया जाता है । 3- माया से काल (समय ) के प्रभाव में प्रभु की मूल प्रकृति है जिसे महतत्त्व कहते हैं । 4- दशांगुल - न्याय में कहा गया है कि :---- 4.1 : ब्रह्माण्ड के सात आवरण हैं ; पृथ्वी ,जल , अग्नि , वायु , आकाश , अहंकार और महतत्त्व जिसे मूल प्रकृति कहते हैं । 4.1.1 : पृथ्वी से दसगुना पानी है । 4.1.2 : पानी से 10 गुना अग्नि है । 4.1.3 : अग्नि से 10 गुना वायु है । 4.1.4 : वायुसे 10 गुना आकाश है । 4.1.5 : आकाश से 10 गुना अहंकार है । 4.1.6 : अहंकारसे 10 गुना महतत्त्व है । <> महतत्त्व  सर्व आत्मा प्रभु का चित्त है  (भागवत: 2.1.35 ) । ## अगले अंक में गीता -तत्त्व विज्ञान के कुछ और तत्त्वों को स्पष्ट किया जाएगा ।। ~~ ॐ ~~

जीव कण क्या है ?

# श्रीमद्भागवद्गीता , श्रीमद्भागत पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराणके आधार पर कुछ ऐसी बातें यहाँ दी जा रही हैं जिनका सम्बन्ध जीव और पदार्थ निर्माण से है । आज हर वैज्ञानिक चाहे वह भौतिक शास्त्री हो , चाहे ,रसायन शास्त्री हो या कोई अन्य ,सभीं जीव निर्माणकी सोच पर केन्द्रित हैं ।  # प्रो. एल्बर्ट आइन्स्टाइन 1995 - 1902 के मध्य जब गणित - कोस्मोलोजी को एक नयी दिशा देनें में केन्द्रित थे तब उनको कहीं से गीता मिल गया और जब उनकी नज़र अध्याय - 7,8,13 और 14 के कुछ श्लोकों पर केन्द्रित हुयी तब उनसे रहा न गया और बोल उठे :----  " When I read Bhagavad Gita and reflect about how God created this universe , everything else seems so superfluous ." # भागवत में कृष्ण ,ब्रह्मा , मैत्रेय और कपिल के सृष्टि विज्ञान दिए गए हैं । इनके सृष्टि विज्ञान में कहा गया है :---  " 1- प्रभु से प्रभु में उनकी तीन गुणों वाली माया एक माध्यम है जो सनातन एवं सीमा रहित है और जो हृदय की भाँति धड़क ( pulsate ) रही है । इसकी धड़कन कालके कारण है ; काल अर्थात समय ( Time ) जो परमात्माका एक निर्मल क्वान्टा है । माया अर्थात spa

गीता में दो पल - 6

<> बुद्धि कैसे स्थिर होती है ? भाग - 1 <>  ● देखिये गीता श्लोक : 2.64 + 2.65 ●  1- श्लोक : 2.64 > " जिसकी इन्द्रियाँ राग - द्वेष अप्रभावित रहती हुयी बिषयों में विचरती रहती हैं , वह नियोजित अन्तः अन्तः करण वाला प्रभु प्रसाद प्राप्त करता है ।"   # अन्तः करण क्या है , और प्रसाद क्या है ? यहाँ अन्तः करण के लिए देखें :--   * भागवत : 3.26.14 * और प्रसादके लिए गीता श्लोक : 2.65 ।  भागवत कहता है , " मन ,बुद्धि ,अहंकार और चित्तको मिला कर अन्तः करण बनता है ।" चित्त क्या है ? मन की वह निर्मल झिल्ली जहाँ गुणोंका प्रभाव नहीं रहता ।मनुष्यके देह में गुणों से निर्मित तत्त्वों में मात्र मन एक ऐसा तत्त्व है जो सात्विक गुण से निर्मित  है ।  2- गीता श्लोक : 2.65 > " प्रभु प्रसाद से मनुष्य दुःख से अछूता रहता है और ऐसे प्रसन्न चित्त ब्यक्ति की बुद्धि स्थिर रहती है । "   <> स्थिर बुद्धि वाला ब्यक्ति स्थिर मन वाला भी होता है ।  <> स्थिर बुद्धि दुखों से दूर रखती है ।  <> स्थिर बुद्धि वाला प्रभु केन्द्रित रहते हुए परम आनंद में मस्त रहता है ।  ●

गीता में दो पल - 5

1- असीम बुद्धि मिली हुयी है ,आप को । यक़ीनन यह पल आपको दुबारा नहीं मिलनें वाला , जितनी दूरी तय कर सकते हो , कर लो ,बादका पछतावा आपके काम न आयेगा ।अनंतकी यात्राके लिए आप बुद्धि मार्गको अपनाया है और आज बुद्धि प्रधान युग चल रहा है , आपके कदम हैं तो सही मार्ग पर यह मार्ग हैं , दुर्गम । 2- बुद्धि मार्गी धीरे - धीरे पहले बाहर से अकेला होता जाता है और जब पूर्ण एकांत उसे भा जाता है तब --- 3- उसकी साधनाका अगला चरण प्रारम्भ होता है। अगले चरण में अन्दर से रिक्त होना प्रारम्भ हो जाता है। 4- बाहरकी रिक्तताको समझना बहुत आसान तो नहीं लेकिन समझा जा सकता है लेकिन अन्दरकी रिक्तता मनुष्य को द्विज बना रही होती है । ** द्विज क्या है ? द्विज का अर्थ है , दुबारा जन्म लेना । दुबारा जन्म वही ले सकता है जो पहले मरे और कोई मरनें को कितनी आसानी से स्वीकार सकता है ,यह सोचका बिषय है । 5- अन्दरकी रिक्ततामें दो द्वार खुलते हैं ; एक सीधे बोधिसत्व में पहुँचाता है और दूसरा द्वार जिसके आकर्षणसे बचना अति कठिन होता है , वह पागलपन में पहुँचाता है । ** आप अपनें बुद्धि - योग साधना में हर पल होश बनाए रखें । ~~ ॐ ~~

गीता में दो पल - 4

1- कामना , क्रोध , लोभ और मोह का गहरा सम्बन्ध है अहंकार से । 2- अहंकार कामना , क्रोध , लोभ और मोह का प्राण है , ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा । 3- कामना , क्रोध , लोभ और मोह ये भोग की रस्सियाँ हैं जिनमें मोह रस्सी की लम्बाई सबसे अधिक होती है और मोटाई सबसे कम । 4- मोह तामस गुण का तत्त्व है और तामस गुण के प्रभावी होनें पर जब किसी की मौत होती है तो उसे अगली कीट , पतंग और पशु में से कोई एक योनि मिलती है (गीता - 14.8+14.15 ) । 5- तुलसी दास कृत रामचरित मानस से ऐसा लगता है कि सम्राट दशरथके प्राण घोर मोह में निकले थे । 6- मोह की दवा सत्संग है ,भागवत ऐसी बात कहता है लेकिन सत्संग में दो होते हैं ; एक सत और दुसरे वे जो सत के जिज्ञासु हैं । सत पुरुष तो पारस होता है पर होता दुर्लभ है । यदि पारस हो भी तो क्या होगा उसके पास जानें से अगर हम लोहा नहीं हैं क्योंकि पारस केवल लोहे को सोना बनता है , गोबरको नहीं । 7- भागवत में कहा गया है कि गंगा पृथ्वी पर उतरनें से पहले एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि जब मैं पृथ्वी पर रहूंगी तो लोग अपनें - अपनें पाप धो - धो कर मेरी निर्मलता समाप्त कर देंगे अतः मैं वहाँ नहीं