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गीता अध्याय - 13 , भाग - 11

ब्रह्म भाग - 03  गीता श्लोक - 13.17  ज्योतिषाम् अपि तत् ज्योतिः तमसः परम् उच्यते /  ज्ञानं ज्ञेयम् ज्ञानगम्यम् हृदि सर्वस्य विष्ठितम्     //  वह सबके ह्रदय में है ...... वह ज्योतियों का ज्योति है ..... वह अज्ञान के परे है ..... वह ज्ञान , ज्ञेयं एवं ज्ञानगम्य है / He dwells in heart of everyone .... He is the nucleus of all luminous  objects .... He is beyond the darkness [ delusion ]  He is knowledge , He is knowable and He is object of  knowledge  विज्ञान का brain  अध्यात्म - ज्ञान का ह्रदय है ; अध्यात्म में सभीं भाव , आत्मा , परमात्मा , ईश्वर , ब्रह्म ,  प्यार , वासना का केंद्र ह्रदय है और विज्ञान में ह्रदय एक पम्प जैसा इकाई है /  गीता में प्रभु कहते हैं --- मैं सबके ह्रदय में बसता हूँ --- आत्मा मेरा अंश है और सबके दृदय में रहता है --- ईश्वर सबके ह्रदय में है ---- सभीं भावों का केंद्र हृदय है और मैं भावातीत हूँ ---- सभीं भाव मुझसे हैं लेकिन मुझमें वे भाव नहीं ----- अब देखिये ज्योतियों का ज्योति क्या है ? विज्ञान में ज्योति प्रकाश का पर्यायवाची कहा जा स

गीता अध्याय - 13 , भाग - 10

ब्रह्म , भाग - 02 गीता श्लोक - 13.15 , 13.16  बहिः अन्तः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च  सूक्ष्मत्वात् तत् अविज्ञेयम् दूरस्थं च अन्तिके च तत्  अविभक्तं च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितं  भूतभर्तृ च तत् ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च  ये दो श्लोक ब्रह्म के सम्बन्ध में प्रभु श्री कृष्ण के हैं , श्लोक कह रहे हैं ------ वह सभीं चर - अचर भूतों के ..... अंदर , बाहर , दूर , समीप में स्थिति है ... और   वह इतना सूक्ष्म है कि अविज्ञेय है // वह अविभक्त है लेकिन सभीं भूतों के रूप में विभक्त सा भाषता है .... वह जाननें योग्य है ..... वह सबका धारण - पोषण कर्ता है ..... वह रुद्ररूप में सब का संहार कर्ता है .... वह सबको पैदा भी कर्ता है // गीता में ब्रह्म , श्री कृष्ण , परमात्मा , ईश्वर , परमेश्वर , आत्मा एवं जीवात्मा तथा पुरुष के सम्बन्ध में लगभग 120 श्लोक हैं और मूल रूप में यदि देखा जाए तो ऐसा लगता है कि ये सभीं शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं / पहला श्लोक  कह रहा है :  वह सबके अंदर , बाहर सर्वत्र है अर्थात वह एक माध्यम है जिससे एवं जिसमें यह संसार है तथा जिससे एवं जिसमें संसार की

गीता अध्याय - 13 भाग - 09

ब्रह्म - 02  गीता श्लोक - 13.13 , 13.14  सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं  सर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वं आवृत्य तिष्ठति  सर्व इंद्रिय गुनाभासम् सर्व इंद्रिय विवार्जितम्  असक्तं सारभूत् च एव निर्गुणं गुणभोगत्रृ च   वह ऐसा है ----- जिसके हाँथ - पैर , नेत्र , सिर , मुख , कान सर्वत्र हैं ..... जो संसार में सबको ब्याप्त कर के स्थित है ...... वह ऐसा है ---- जो सभीं इंद्रिय बिषयों को जानता है .... जो इंद्रिय रहित है .... जो आसक्ति रहित स्थिति में सबका धारण - पोषक है ... जो निर्गुण है और गुणों का भोक्ता भी है  गीता का यह श्लोक निर्गुण निराकार ब्रह्म के सम्बन्ध में है / निराकार को सआकार के माध्यम से ही ब्यक्त किया जा सकता है और यह प्रयाश मात्र प्रयाश बन कर राह जाता है , एक इशारा के रूप में इसे समझाना चाहिए ,  लाओत्सू  और शांडिल्य ऋषि कहते हैं ---- सभीं इशारे उसकी ओर हैं लेकिन हैं अधूरे और इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं /  ब्रह्म एक शास्वत ऊर्जा है जिसको इंद्रियों की अनुभूति , बिषयों की अनुभूति एवं वह सभीं गुण उपलब्ध हैं जो एक गुण प्रभावित जीव में हैं लेकिन वह मूल

गीता अध्याय - 13 भाग - 07

ब्रह्म [ 01 ]  [ गीता श्लोक 13.12 से 13.17 तक ] श्लोक - 13.12  ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा अमृतं अश्नुते  / अनादितम् परमं ब्रह्म न सत् तत् न असत् उच्यते  /  परम ब्रह्म न सत् है न असत्  जाननें योग्य  है , ब्रह्म का बोध अमृत सामान है ब्रह्म वह है जिसका सम्बन्ध निराकार उपासना से है और निराकार उपासना का प्रारम्भ तब होता है  जब ---- इन्द्रियाँ नियोजित हों .... मन शांत हो ..... बुद्धि स्थिर हो [ अर्थात तर्क - वितर्क की जिस बुद्धि में कोई जगह न हो ]  बिषयों के स्वभाव के प्रति होश बना हुआ हो  तन , मन एवं बुद्धि जब निर्विकार स्थिति में होते हैं  तब ----- इस स्थिति में मन - बुद्धि से परे की अनुभूति का नाम है ..... ब्रह्म  सत् और असत् की सोच निर्विकार मन - बुद्धि से नहीं है ; जब मन - बुद्धि निर्विकार हो  उठते हैं तब सभीं द्वैत्य तिरोहित हो जाते हैं और जो बच रहता है वह होता है परम सत्य अर्थात परम ब्रह्म / आज ब्रह्म - योग के प्रारंभिक चरण में बिषयों को समझो : पांच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और हर एक इंद्रिय का एक बिषय है जो अपनें सम्बंधित इंद्रिय को आकर्ष

गीता अध्याय - 13 भाग - 06

ज्ञान और ज्ञानी  सम्बंधित गीता श्लोक : 13.2 , 13.7 - 13.11 तक  सूत्र - 13.2  प्रभु कह रहे हैं : क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है , ऐसा मेरा मत है  और ज्ञानी के सम्बन्ध में प्रभु कह रहे हैं : गीता श्लोक - 13.7 - 13.11 तक  अभिमान , दंभ , का अभाव , अहिंसा शांति , मन - वाणी से सरलता , बाहर - भीतर की शुद्धि , अन्तः करण की स्थिरता , इंद्रिय - मन निग्रह .... वैराज्ञ की ऊर्जा से परिपूर्ण , जन्म - जीवन , ज़रा का बोध , ...... तन , मन से परिवार , धन से अनासक्त रहना , ममता का अभाव , समभाव में रहना ...... मुझ परमेश्वर में अब्यभिचारिणी भक्ति का होना , एकांत में रहनें वाला , किसी से लगाव का न होना ..... अध्यात्म - ज्ञान में डूबे रहना , तत्त्व - ज्ञान से परमात्मा को देखना ..... यह सब ज्ञानी के लक्षण हैं // अब गीता की बात को अन्तः करण में बैठाने का काम करते हैं - - - - - -- - - क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध तो ज्ञान है लेकिन क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध किसे होता है ? क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ  का बोधी वह है जो ..... तीन गुण ; सात्त्विक , राजस एवं तामस के तत्त्वों जैसे ..... आसक

गीता अध्याय - 13 भाग - 05

जीव रचना का अगला भाग  गीता में जीव रचना से सम्बंधित निम्न  सूत्रों को देखा जा सकता है : सूत्र - 7.4 - 7.6 , 9.10 , 13.5 - 13.6 , 13.20 - 13,22 , 14.3 - 14.4  अब हम देखनें जा रहे हैं सूत्र - 14.3 - 14.4  मम योनिः महत् ब्रह्म तस्मिन् गर्भम् दधामि अहम् / संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत                   / सर्व योनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः  /  तासां ब्रह्म महत् योनिः अहम् बीजप्रदः पिता // प्रभु कह रहे हैं : सभी योनियों से जो जीव उत्पन्न होते हैं उनका पिता की भांति बीज स्थापित करनें वाला मैं हूँ और जहाँ बीज स्थापित होता है  वह योनि का माध्यम जो गर्भ को धारण करताहै ,  ब्रह्म है / जीव रचना सम्बंधित हम गीता के 11 श्लोकों को देख रहे हैं और अब समय आ गया है कि हम इन सभी श्लोकों के सारांश को यहाँ देखें / प्रकृति , पुरुष , क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ , कार्य , करण , ब्रह्म एवं प्रभु श्री कृष्ण इन शब्दों के माध्यम से गीता के 11 श्लोक हमें जीव - रचना का विज्ञान देते हैं जो इस प्रकार से समझा जा सकता है :---- जीव दो के योग का परिणाम है  क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ , ये तो तत्त्व जी

गीता अध्याय - 13 भाग - 04

गीता श्लोक - 13.20 , 13.21  [ पिछले अंक के सन्दर्भ में ]  कार्य करण कर्तृत्वे हेतु : प्रकृतिः उच्यते /  पुरुषः सुख दु:खानां भोक्तृत्वे हेतु : उच्यते // पुरुषः प्रक्रितिस्थः हि भुङ्क्ते प्रक्रितिजान् गुणां  / कारणं गुणसंग : अस्य सदसद्योनिजन्मसु        // " कार्य एवं करण प्रकृति  से प्रकृति में हैं , पुरुष सुख - दुःख भोक्ता का हेतु कहा गया है " " प्रकृति में स्थित पुरुष तीन गुणों से उत्पन्न होनें वालों का भोक्ता है और यह गुण - भोग उसे बार - बार नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेनें का कारण है " कार्य - करण क्या हैं ?  * 05 महाभूत + 05 इंद्रिय बिषय को कार्य कहते हैं  * 10 इन्द्रियाँ + मन + बुद्धि + अहँकार इनको करण कहते हैं  पुरुष क्या है ? सांख्य - योग में पुरुष चेतना [ consciousness ] को कहा गया है लेकिन गीता में आत्मा , जीवात्मा , ब्रह्म , परमात्मा के लिए पुरुष शब्द प्रयोग किया गया है /  पुरुष से पुरुष  में माया ,  माया से माया में  सभीं चर - अचर , विकार , गुण ,  एवं अन्य सभीं सूचनाएं हैं और जीव का कारण जो है वह भी पुरुष ही है , लेकिन पुरुष विक