Posts

गीता अमृत - 82

आइये ! अब कुछ गीता सारांशों को देखते हैं ------- [क] भाषा बुद्धि की उपज है ..... [ख] भाषा भावों को ब्यक्त करना चाहती है लेकीन असफल रहती है .... [ग] भावों में डूबा भाषा के माध्यम से जब अपनें भावों को ब्यक्त करता है तब वह और अतृप्त हो उठता है .... [घ] भाषा से भाव ब्यक्त होते तो ---- ## बुद्ध को चालीश वर्ष क्यों बोलना पड़ता .... ## काशी में कबीरजी सौ वर्षों से भी अधिक समय तक क्यों बोलते .... [च] भाव एक माध्यम हैं जो भावातीत में पहुंचाते हैं .... [छ] भावों को समझो , भावों से लड़ो नहीं ..... [ज] भाव दो प्रकार के हैं - सकारण और बिना कारण .... [ज-१] सकारण भाव नरक में ले जाते हैं और ..... [ज-२] कारण रहित भाव प्रभु से जोड़ते हैं [झ] सकारण भाव गुणों से आते हैं , और .... [झ-१ ] बिना कारण भाव ह्रदय से उठते हैं ... [झ-२] ह्रदय में आत्मा - परमात्मा रहते हैं ... [झ-३] ह्रदय बासना रहित प्यार का श्रोत भी है ॥ ==== ॐ =====

गीता अमृत - 81

गीता का आदि - अंत धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव : । मामकाः पाण्डवा श्चैव किम कुर्वत संजय ॥ गीता - 1.1 यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीविर्जयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ गीता - 18.78 यदि गीता में ये दोनों श्लोक एक साथ होते तो गीता में 700 श्लोक न होते , गीता केवल दो श्लोकों में होता । ध्रितराष्ट्र जी एक अंधे ब्यक्ति हैं , कौरवों के परिवार के प्रधान हैं । धृतराष्ट्र जी की मदद के लिए संजयजी उनके साथ हैं जिनको वेदव्यास [ गीता - 18.75 ] जी द्वारा ऐश्वर्य आँखें मिली हुई है जिनकी मदद से वे सुदूरपूर्व की घटनाओं को सुन और देख सकते हैं संजय से पूंछते हैं - हे संजय ! मेरे और पांडव के पुत्रों के मध्य धर्म क्षेत्र , कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है ? धृतराष्ट्र जी एवं संजय कुरुक्षेत्र में युद्ध भूमि से कुछ दूरी पर रहे होंगे । यहाँ आप बुद्धि - योग में इन बातों पर सोचें ----- [क] गीता के जन्म से पहले भी कुरुक्षेत्र क्यों और कैसे धर्म स्थान था ? [ख] दूर स्थिति संजय कैसे ध्वनि - चित्र बिस्तारको पकडनें में सफल हो रहे हैं जबकी उस समय टेलीविजन टेक्नोलोजी न थी ? [ग] धृतराष

गीता अमृत - 80

गीता सूत्र - 18.62 से 18.73 तक यहाँ परम श्री कृष्ण क्या चाह रहे हैं ? इस बात को आप देखें ------ आत्मा - परमात्मा , ज्ञान - विज्ञान , भोग - योग , गुण तत्त्व - त्याग , कर्म - कर्म संन्यास जैसी बातों को स्पष्ट करनें के बाद श्री कृष्ण यहाँ और क्या प्रयोग कर रहे हैं ? इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं । [क] गीता - 18.62 ....... तूं उस परमेश्वर की शरण में जा । [ख] गीता - 18.63 ....... मुझे जो बताना था , बता दिया है , अब तू जो उचित समझे , वैसा कर । [ग] गीता - 18.64 ........ तूं मेरा प्रिय है , मैं तेरे को तेरे हित की बातें बताउंगा । गीता - 9.29 में प्रभु कहते हैं --- मेरा कोई प्रिय या अप्रिय नहीं है , मैं सब में सम भाव से हूँ । [घ] गीता - 18.65 ........ तूं मेरा प्रिय है , तूं मेरा भक्त बन जा । [च] गीता - 18.66 ........ तूं सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आजा , मैं तेरे को मुक्ति दूंगा । [छ] गीता - 18.67 ....... तप रहित एवं भक्ति रहित ब्यक्ति के साथ गीता की चर्चा नहीं करनी चाहिए । [ज] गीता - 18.68 .... 18.71 तक ---- गीता प्रेमी के ह्रदय में मैं बसता हूँ । [झ] गीता - 18.72 ..... क्

गीता अमृत - 79

जा तूं परमेश्वर की शरण में ....... गीता श्लोक - 18.62 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ------- हे अर्जुन ! अब तूं जा उस परमेश्वर की शरण में , वहीं तेरे को प्रसाद रूप में शान्ति मिलेगी और उसकी कृपा से तेरे को सनातन परम धाम भी मिलेगा । गीता में इस श्लोक के बाद प्रभु के मात्र दस श्लोक और हैं , गीता का समापन हो रहा है और प्रभु ऎसी बात कह रहे हैं की जा तूं उस परेश्वर की शरण में । गीता में प्रभु [ देखिये गीता सूत्र - 10.9 - 10.11, 18.56- 18.57, 18.65 - 18.66 ] अभी तक कहते रहे हैं की मैं ही परमात्मा हूँ , मैं ही ब्रह्म हूँ , मैं ही जगत का आदि , मध्य एवं अंत हूँ और यहाँ कह रहे हैं -- जा तूं उस परमेश्वर की शरण में --- ऐसा क्यों कह रहे हैं ? गीता के बारह अध्यायों में लगभग पच्चासी श्लोकों के माध्यम से लगभग सौ से भी अधिक उदाहरणों से प्रभु अपनें साकार एवं निराकार रूपों के बारे में बताये हैं लेकीन यहाँ आ कर अर्जुन को क्यों कह रहे हैं की तूं जा उस परमेश्वर की शरण में ? कोई तो कारण होगा ही । गीता एक रहस्य है और गीता में श्लोक - 18.62 स्वयं में एक रहस्य है , इसकी सोच आप को बुद्धि - योग में पहुंचा सकती

गीता अमृत - 78

मन से सब हैं गीता , उपनिषद् , वेद, पुराण एवं अन्य शास्त्रों में कहा गया है .......... बुद्धि मन का महावत है मन ज्ञानेन्द्रियों का महावत है मन कर्म इन्द्रियों का महावत है , और मनुष्य मन का गुलाम है मन गुण - समीकरण का गुलाम है गुण समीकरण ------ खान - पान , सम्बन्ध एवं सोच का गुलाम है , फिर हमें क्या करना चाहिए ? हमें स्वयं को अपनें भोजन , निद्रा , विश्राम , कर्म , संबंधों एवं ज्ञानेन्द्रियों की गतियों पर केन्द्रित करना चाहिए । गुण समीकरण क्या है [ देखिये गीता - 14.10 ] मनुष्य के अन्दर हर पल तीन गुणों की कुछ - कुछ मात्राएँ होती हैं जो हर श्वास के साथ बदलती रहती हैं । जप गुण ऊपर होता है , मनुष्य की सोच वैसी ही होती है । जैसी सोच होती है , वैसे कर्म होते हैं , कर्म का फल यदि चाह के अनुकूल हुआ तब सुख मिलता है और जब यह प्रतिकूल होता है तब दुःख मिलता है । शास्त्र कहते हैं -- जैसा मन , वैसा संसार , जैसा मन , वैसा कर्म , जैसा मन वैसी सोच और जीसी सोच वैसा सब कुछ होता है । हम पांच ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से संसार में स्थित पांच बिषयों से सम्बंधित रहते हैं । इन्द्रिय एवं उसके बिषय का संयो

गीता अमृत - 77

गीता का एक इशारा आइये ! आप और हम मिल कर गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं ------- [क] गीता सूत्र 18.58 प्रभु अर्जुन को आगाह कर रहे हैं , कहते हैं - यदि तूं अहंकार के सम्मोहन में आकर मेरी बातों को अन सुनी करके युद्ध नहीं करता तो तेरा अंत निश्चित है और यदि तूं समर्पण भाव में मेरी बातों के अनुकूल काम करता है तो तेरा कल्याण ही कल्याण है । [ख] गीता सूत्र - 18.59 प्रभु कहते हैं - हे अर्जुन ! तूं बार - बार यह न कह की मैं युद्ध से भाग जाऊँगा , यह बिचार तेरे अंदर अहंकार के कारण है , लेकीन तूं यहाँ भूल रहा है की तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खीच ही लेगा । [ग] गीता सूत्र - 18.60 तूं मोह के कारण युद्ध से भागना चाहता है लेकीन तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खीच लेगा । ऊपर के सूत्रों से जो बात सामनें आती है वह इस प्रकार से है ----- ## मोह में भी अहंकार की छाया होती है ## मनुष्य स्वभाव के अनुकूल कर्म करता है अब आप देखें गीता सूत्र - 2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 14.10, 8.3 ये सूत्र कहते हैं ...... गुणों के कारण मनुष्य का स्वभाव बनाता है , स्वभाव से कर्म होता है और ऐसे सभी कर्म , भोग कर्म होते हैं । मनुष्य का ग

गीता अमृत - 76

प्रभु का प्रसाद किसको मिलता है ? [क] गीता - 18.54 - 18.56 ..... क्या परमात्मा से परमात्मा में केन्द्रित परा भक्त को ? [ख] गीता - 2.48 - 2.51 ......... क्या आसक्ति रहित समभाव वाले को परम गति के रूप में ? [ग] गीता - 6.29 - 6.30 ......... क्या सब में प्रभु को देखनें वाले को जिसके लिए प्रभु निराकार नहीं रहता ? [घ] गीता - 9.29 .................... क्या परम प्यार में डूबे हुए को जिसमें प्रभु स्वयं झांकता है ? [च] गीता - 12.8. 12.3 - 12.4... क्या उसको जो ध्यान के माध्यम से मन - बुद्धि से परे की अनुभूति में होता है ? [छ] गीता - 13।30 ................... क्या उसको जो सभी जीवों में प्रभु को देखता है ? [ज] गीता - 7.3, 7.19, 12.5 लेकीन ऐसे योगी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ब्रह्म के फैलाव रूप में देखते हैं , दुर्लभ योगी होते हैं । परम प्रीति वाला ..... गुणों से अप्रभावित रहनें वाला .... काम क्रोध , लोभ , मोह एवं अहंकार से अछूता ब्यक्ति .... प्रभु से प्रभु में संतुष्ट रहनें वाला प्रभु के प्रसाद रूप में परम आनंद में रहता है । ===== ॐ =======