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Gita Tatva Vigyan: गीता अमृत - 54

Gita Tatva Vigyan: गीता अमृत - 54

गीता अमृत - 54

त्याग के तीन रूप देखिये गीता श्लोक - 3.27, 4.20 - 4.21, 5.6, 5.10 - 5.13, 6.1 - 6.2, 6.4, 18.1 - 18.12 गीता कहता है ...... तीन प्रकार के गुण हैं और गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं एवं तीन प्रकार के ही त्याग हैं । शरीर कष्ट के कारण किया गया त्याग राजस त्याग है , भय के कारण किया गया त्याग तामस त्याग है और कर्मों में आसक्ति एवं करता भाव का त्याग है - सात्विक त्याग । अब देखिये गीता श्लोक -- 2.48, 2.49, 3.19 - 3.20, 18.49 - 18.50 को जो कहते हैं ...... आसक्ति रहित कर्म , योग है , संन्यास है और इस से बैराग्य में प्रवेश मिलता है । गीता श्लोक - 7.20, 18.72 - 18.73 कहते हैं .... कामना एवं मोह अज्ञान की जननी हैं । कामना राजस गुण का तत्त्व है और मोह है तामस गुण का तत्त्व । राजस एवं तामस गुण प्रभु की ओर रुख करनें नहीं देते और सात्विक गुण में जब अहंकार प्रधान होता है तब भी रुख प्रभु की ओर न हो कर , भोग की ओर होता है । भोग जीवन में भोग तत्वों की पकड़ को ढीली करनें के लिए राजस एवं तामस त्यागों की मदद से ही सात्विक त्याग में पहुंचा जा सकता है । जब तक त्याग करता यह समझता है की वह त्याग कर रहा

गीता अमृत - 53

परम द्वार [क] परस्तस्यातु भाव: अन्यः अब्याक्तात सनातनः । यः स सरवेषु भूतेषु नश्यत्सु न बिनश्यति ॥ 8।20 ॥ [ख] अब्यक्त: अक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्भाव परमं मम ॥ 8।21 ॥ [ग] पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततं ॥ 8।22 ॥ गीता के तीन श्लोक परम द्वार की ओर संकेत दे रहे है , यह कहते हुए की ------- अनन्य भक्ति से अब्यक्त भाव भरता है ....... अब्यक्त भाव में अब्यक्त अक्षर की धुन ह्रदय में भरती है ..... जब यह धुन ह्रदय से चल कर तीसरी आँख पर पहुंचती है ..... तब वह योगी तन , मन एवं बुद्धि से अपनें को अलग देखता है ..... जो योगी इस भाव दशा में अपना प्राण छोड़ता है उसे .... परम गति के माध्यमसे परम पद मिलता है । मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है - परम पद पाना जिसके पानें से .... मनुष्य आवागमन से मुक्त हो जाता है । ===== ॐ=====

गीता अमृत - 52

गांठे तो खुलेंगी ही ....... गांठें तो खुलेंगी ही -- चाहे आज खुलें या कल -- चाहे इस जनम में खुलें -- या अगले जनम में -- गांठें तो खुलेंगी ही । तीन तत्त्व और उनकी अपनी अपनी गांठें मनुष्य को इस भोग स्थल संसार में कही रुकनें नहीं देती । काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य , कामना, अहंकार - आठ गुण तत्त्व हैं जो मनुष्य को सत से दूर रखते हैं । लोग कहा करते हैं - शरीर समाप्ति के बाद क्या होता है , कौन जानता है ? बात भी भोग की दृष्टि से सत लगती है लेकीन गीता कुछ और बोलता है । गीता कहता है - शरीर समाप्ति के बाद आत्मा मन को अपनें संग रखता है और मन जीवन भर की कामनाओं का ब्लैक बोक्स है । मन आत्मा को विवश कर देता है , नया शरीर धारण करनें के लिए जिससे अतृप्त कामनाओं को पूरा किया जा सके [ गीता - 8.6, 15.8 ] मन अपने अधीन पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मनुष्य को संसार में भ्रमण कराता रहता है । मनुष्य का मन - बुद्धि तंत्र गुणों का गुलाम है । मनुष्य के अन्दर जिस काल में जो गुण ऊपर होता है मनुष्य संसार में उस गुण के तत्वों के रूप में संसार को देखता है । संसार और मनुष्य के चेतना के मध्य मन - बुद्धि त

गीता अमृत - 51

माया से मायातीत गीता के निम्न श्लोकों के आधार पर माया से मायातीत और मायातीत में माया पति की अनुभूति का मार्ग देखा जा रहा है जिसमें आप आमंत्रित हैं ------- 2.48 - 2.51, 2.16, 7.4 - 7.6, 7.12 - 7.15, 13.5 - 13.6, 13.19, 14.3 - 14.4, 14.20, 14.22 - 14.27, 16.8, 18.40 गीता कहता है --- माया वह परदे की जाल है जिसकी समझ वह दृष्टि देती है जिससे माया से परे की अनुभूति होती है और उस अनुभूति का नाम है एक ओंकार सत नाम । प्रभु से प्रभु में तीन गुणों का एक सीमारहित माध्यम है , जिसको माया कहते हैं । माया से माया में ब्रह्म लोक सहित सभी लोक हैं और सभी लोक जन्म , जीवन एवं मृत्यु चक्र में हैं । माया का आधार दो प्रकृतियाँ हैं ; अपरा एवं परा । अपरा में आठ तत्त्व हैं - पञ्च महाबूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार और चेतना परा प्रकृति है । अपरा - परा जब आपस में मिलते हैं तब यदि ऐसी स्थिति पैदा हो जो जीवात्मा - परमात्मा को अपनें में आकर्षित कर सके तब जीव पैदा होता है । जीवों का मूल श्रोत चूंकि तीन गुण हैं अतः उनमें तीन गुणों का होना भी तय है । तीन गुणों के तत्त्व हैं - काम , कामना , आसक्ति , क्रोध , लोभ , अहंका

गीता अमृत - 50

निर्वस्त्र पृथ्वी रो रही है सन्दर्भ गीता श्लोक - 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4 पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु एवं आकाश - इन पांच तत्वों को पञ्च महा भूत कहते हैं । पञ्च महाभूत जीव निर्माण के मूल तत्त्व हैं । जब तक पृथ्वी या पृथ्वी जैसी परिस्थिति न हो तब तक जल एवं वायु का होना संभव नहीं है । जल - हाईड्रोजेन एवं आक्सिजेंन का योग है और विज्ञान में हाईड्रोजेन वह आदि [ Primeval Atom ] एटम है जिस से ब्रहमांड की रचना प्रारम्भ हुई थी । अब से लगभग 4.5 billion वर्ष पूर्व पृथ्वी एक आग के गोले के रूप में प्रकट हुई थी और लगभग 800 million वर्ष पूर्व में आकर वर्तमान रूप में आई और तब से अपने शरीर को ढकनें में लगी है । पृथ्वी और चाँद का गहरा आपसी सम्बन्ध है । पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ तीस किलो मीटर प्रति सेकेंड की चाल से घूम रही है और इसकी चाल का नियंत्रण , चाँद करता है । जैसे - जैसे विज्ञान अपना पंख फैला रहा है वैसे - वैसे पृथ्वी का संकट सघन होता जा रहा है । विज्ञान से यदि सबसे अधिक नुक्सान किसी को हुआ है तो वह है प्रकृति की माँ - पृथ्वी । पिछले लगभग चार सौ वर्षों में पृथ्वी को गंजा बना दिया गया , प

गीता अमृत - 49

परम सत्य को समझो सन्दर्भ सूत्र - गीता ...8.6 , 15.8 , 14.5 गुरुवार रविन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं ------ Butterfly counts not months but moments and has time enough क्या इस सोच वाला ब्यक्ति कभी बूढा हो सकता है ? जी नहीं । मंदिरों में लम्बी - लम्बी कतारें किनकी हैं ? कौन मौत की भय से मुक्त होना चाहता है ? कौन कभी मरना नही चाहता ? [क] जो अपनें वर्तमान को सुखों में देखते हैं और जिनको इस से राहत मिलनें की कोई राह नहीं दिखती , वे न चाहते हुए भी मौत को आमंत्रित करते हैं । [ख] जो भोग को परम समझते हैं , जिनके पास भोग के सभी साधन उपलब्ध हैं वे मौत से संघर्ष करते हैं और अमरत्व की दवा खोजते हुए कहीं रास्ते में दम तोड़ देते हैं । अब जीवन को देखिये ........ जीवन में दो किनारे हैं और दोनों का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में मौत से सम्बंधित है ; जन्म मृत्यु को याद कराता है और जीवन का आखिरी छोर मृत्यु है ही । सब जानते हैं की मौत एक परम सत्य है लेकीन फिरभी मृत्यु के भय में अपना वर्तमान को खो रहे हैं - आखिर ऐसा क्यों है ? गीता कहता है भागना शब्द भय से है और भय तामस गुण का तत्त्व है । परम श्री कृष्ण कहते है