गीता अमृत - 80
गीता सूत्र - 18.62 से 18.73 तक
यहाँ परम श्री कृष्ण क्या चाह रहे हैं ? इस बात को आप देखें ------
आत्मा - परमात्मा , ज्ञान - विज्ञान , भोग - योग , गुण तत्त्व - त्याग , कर्म - कर्म संन्यास जैसी बातों
को स्पष्ट करनें के बाद श्री कृष्ण यहाँ और क्या प्रयोग कर रहे हैं ? इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं ।
[क] गीता - 18.62 ....... तूं उस परमेश्वर की शरण में जा ।
[ख] गीता - 18.63 ....... मुझे जो बताना था , बता दिया है , अब तू जो उचित समझे , वैसा कर ।
[ग] गीता - 18.64 ........ तूं मेरा प्रिय है , मैं तेरे को तेरे हित की बातें बताउंगा । गीता - 9.29 में प्रभु कहते हैं --- मेरा कोई प्रिय या अप्रिय नहीं है , मैं सब में सम भाव से हूँ ।
[घ] गीता - 18.65 ........ तूं मेरा प्रिय है , तूं मेरा भक्त बन जा ।
[च] गीता - 18.66 ........ तूं सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आजा , मैं तेरे को मुक्ति दूंगा ।
[छ] गीता - 18.67 ....... तप रहित एवं भक्ति रहित ब्यक्ति के साथ गीता की चर्चा नहीं करनी चाहिए ।
[ज] गीता - 18.68 .... 18.71 तक ---- गीता प्रेमी के ह्रदय में मैं बसता हूँ ।
[झ] गीता - 18.72 ..... क्या तूनें शांत मन से गीता को सूना ? क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हुआ ?
[क-1] गीता - 18.73 ... अर्जुन प्रभु को धन्यबाद दे रहे हैं और कहते हैं ---- मेरा मोह समाप्त के गया है , मैं अपनी स्मृति पा ली है और अब मैं आप की शरण में हूँ ।
आपनें गीता सूत्र - 18.62 से 18.73 तक को देखा , अब वक़्त है इन सूत्रों पर गहराई से सोचनें का ।
परम श्री कृष्ण जब देखते हैं की तत्त्व - ज्ञान की बातें अर्जुन के ऊपर कोई सकारात्मक असर नहीं डाल रही हैं तब वे एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग करते हैं जो ऊपर के सूत्रों में छिपा है । परम कभी अर्जुन को अपनें से दूर करते हैं और कभी उसे अपनाते हैं , कभी कहते हैं - बेकार है उसके सामनें गीता - ज्ञान की चर्चा करना जो नास्तिक स्वभाव वाला हो और कभी कहते हैं - तूं सभी धर्मों को छोड़ कर मेरी शरण में आजा , मैं तेरे को मुक्ति दूंगा ।
मोह संग माँगता है , संग को तलाशता है , वह अकेले में आपनें को तनहा देखता है । मोह में उलझा ब्यक्ति जब देखता है की उसका साथी उस से दूर हो रहा है तब वह उसे रोकनें के सारे उपाय करता है । मोह और भय दोनों तामस गुण के तत्त्व हैं और साथ - साथ रहते हैं , भय में ब्यक्ति संकुचित होता है , सिकुड़ता है , वह चाहता है की कोई ऐसा हो जो उसे सुरक्षा दे सके । अर्जुन जब परम को अपनें से दूर देखते हैं तब समर्पण भाव दिखाते हैं और जब नजदीक पाते हैं तब प्रश्न पूछते हैं - यह क्रम चलता रहता है और गीता का अंत आजाता है ।
गीता का अंत नहीं .....
ध्यान का अंत नहीं ....
प्रभु अनंत है .....
बूँद खोजती है , सागर को ....
अपनी प्यास बुझानें को ....
जब सागर ही बूंद में समाये ......
तो उस बूँद की स्थिति कैसी होगी ?
==== ॐ ======
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