गीता अमृत - 58
सकाम भक्ति मुक्ति का द्वार नहीं खोलती
गीता - 9.23 - 9.25
सकाम भक्ति क्या है ?
गुण तत्वों के प्रभाव में आकर जो भक्ति की जाती है , वह है - सकाम भक्ति । मुक्ति पानें की कामना हो
या भोग प्राप्ति की कामना हो , दोनों तत्त्व - ज्ञान की दृष्टि में एक हैं । काम की कामना हो या भोग प्राप्ति के किये राम से जुडनें की कामना हो , दोनों एक हैं । गीता कहता है - गुण माध्यम हैं जिनसे एवं जिनमें साधना होती है लेकीन अंततः गुणों से परे पहुँचना ही साधना का उद्धेश्य है ।
गीता श्लोक - 3.12, 4.12, 7.16, 9.25, 17.4 को आप देखें , यहाँ गीता कहता है ------
प्रभु , देवता एवं मनुष्य - तीन का एक समीकरण है । गीता का प्रभु द्रष्टा है , साक्षी है , वह अकर्ता है और गुण
करता हैं एवं मनुष्य करनें का माध्यम है । मनुष्य देवों की भक्ति से उन्हें प्रसन्न करके इच्छित भोग की
प्राप्ति कर सकता है लेकीन मुक्ति तक नहीं पहुँच सकता । प्रभु एवं मनुष्य के मध्य देव एक कड़ी हैं जो परम
ऐश्वर्य भोग में स्वयं रहते हैं और मनुष्य को भोग में सहयोग करते हैं , यदि उनकी भक्ति की जाए तब ।
गीता कहता है काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहंकार के प्रभाव में जो होता है , उसका
संम्बंध प्रभु से नहीं होता अर्थात ऐसे कर्म , भोग कर्म हैं लेकीन जब कर्मों में इन तत्वों का अभाव
होता है तब यही कर्म , योग कर्म हो जाते हैं और करनें वाला प्रभु की ओर चलनें लगता है ।
देवता वास्तव में मशीन की तरह हैं जो मनुष्य के अन्तः कर्ण की बात को नहीं समझते , साधना से खुश हो कर
साधना करनें वाले को उसकी कामना पूर्ति का वरदान दे देते हैं । हमारे शास्त्र अनंत कथाओं से भरे पड़े हैं
जिनका कोई अंत नहीं है और जो कही पहुंचाती भी नहीं है , बश एक गोल चक्कर में घुमती रहती हैं ।
शांडिल्य , अष्टावक्र जैसे प्रभु से परिपूर्ण सिद्धि योगियों को भी श्राप देते दिखाया गया है , लेकीन इस बात को कोई गीता - योगी या तत्त्व योगी भला कैसे मान सकता है ?
====== ॐ =======
गीता - 9.23 - 9.25
सकाम भक्ति क्या है ?
गुण तत्वों के प्रभाव में आकर जो भक्ति की जाती है , वह है - सकाम भक्ति । मुक्ति पानें की कामना हो
या भोग प्राप्ति की कामना हो , दोनों तत्त्व - ज्ञान की दृष्टि में एक हैं । काम की कामना हो या भोग प्राप्ति के किये राम से जुडनें की कामना हो , दोनों एक हैं । गीता कहता है - गुण माध्यम हैं जिनसे एवं जिनमें साधना होती है लेकीन अंततः गुणों से परे पहुँचना ही साधना का उद्धेश्य है ।
गीता श्लोक - 3.12, 4.12, 7.16, 9.25, 17.4 को आप देखें , यहाँ गीता कहता है ------
प्रभु , देवता एवं मनुष्य - तीन का एक समीकरण है । गीता का प्रभु द्रष्टा है , साक्षी है , वह अकर्ता है और गुण
करता हैं एवं मनुष्य करनें का माध्यम है । मनुष्य देवों की भक्ति से उन्हें प्रसन्न करके इच्छित भोग की
प्राप्ति कर सकता है लेकीन मुक्ति तक नहीं पहुँच सकता । प्रभु एवं मनुष्य के मध्य देव एक कड़ी हैं जो परम
ऐश्वर्य भोग में स्वयं रहते हैं और मनुष्य को भोग में सहयोग करते हैं , यदि उनकी भक्ति की जाए तब ।
गीता कहता है काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहंकार के प्रभाव में जो होता है , उसका
संम्बंध प्रभु से नहीं होता अर्थात ऐसे कर्म , भोग कर्म हैं लेकीन जब कर्मों में इन तत्वों का अभाव
होता है तब यही कर्म , योग कर्म हो जाते हैं और करनें वाला प्रभु की ओर चलनें लगता है ।
देवता वास्तव में मशीन की तरह हैं जो मनुष्य के अन्तः कर्ण की बात को नहीं समझते , साधना से खुश हो कर
साधना करनें वाले को उसकी कामना पूर्ति का वरदान दे देते हैं । हमारे शास्त्र अनंत कथाओं से भरे पड़े हैं
जिनका कोई अंत नहीं है और जो कही पहुंचाती भी नहीं है , बश एक गोल चक्कर में घुमती रहती हैं ।
शांडिल्य , अष्टावक्र जैसे प्रभु से परिपूर्ण सिद्धि योगियों को भी श्राप देते दिखाया गया है , लेकीन इस बात को कोई गीता - योगी या तत्त्व योगी भला कैसे मान सकता है ?
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