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तन से नहीं , मन से बैरागी

गीता कहता है ----- तन से तो बैरागी सब बन सकते हैं लेकिन उस से क्या मिलेगा ? मन का बैरागी तो प्रभु को पा लेता है । यहाँ देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ------- 15.1- 15.3, 10.20, 13.17, 13.22, 13.33, 15.7, 15.11, 18.61, 3.34, 4.10, 13.1- 13.11, 6.33-6.34 6.26, 6.35, 2.69, 2.52, 2.45, 3.27, 18.49-18.50, 18.54-18.55 गीता कहता है ....... मन , मनुष्य एवं परमात्मा के मध्य एक ऐसा परदा है जिस के कारण प्रभु मनुष्य से अलग समझा जाता है । मन एक तरफ़ बिषयों के माध्यम से संसार से जुड़ा होता है और इसका अन्दर का किनारा चेतना के माध्यम से आत्मा-परमात्मा से जुड़ा होता है । संसार वह गुणों से परिपूर्ण माध्यम है जो अपनें में छिपे राग-द्वेष के माध्यम से इन्द्रीओं को सम्मोहित करता रहता है [गीता 3.34 ] और गुणों से प्रभावित मन इन्द्रियों का गुलाम होता है । निर्विकार मन के ऊपर प्रभु दिखता है और श्री कृष्ण कहते हैं ----- इन्द्रियों में मन और भूतों में चेतना ---मैं हूँ , ....इस का क्या अर्थ है ? गुणों से अप्रभावित मन जो निर्विकार होता है वहाँ परमात्मा होता है , यही कारण है की परम श्री कृष्ण कहते हैं --- इन्द्र