तन से या मन से
तन की चाह , मन की चाह की परछाई है ..... मन की चाह राजस गुन की छाया है ........... चाह में चिंता अहंकार का प्रतिबिम्ब है । सुखी जीवन की चाह तो सब को है , लेकिन यह चाह ऐसी है जिसमें ....... सारा जीवन सरक जाता है , पता तक नहीं चल पाता और जब यह आभाष होता है की .......... यह मैं क्या किया ? ----जाति रहे हरी भजन को, ओटन लगे कपास , तब महसूश होता है की ----- अज्ञान की यात्रा क्या होती है ? भोग-भाव अज्ञान का इशारा है .... मैं का होना अहंकार का साकार रूप है और ...... गुणों में सुख का खोजी कभी ........ परमानन्द की छाया को भी नहीं पाता , क्योंकि ...... वह , जो परमानन्द है वह ...... गुनातीत है , भावातीत है और ..... मन-बुद्धि से परे की अनुभूति है , फ़िर क्या करे ? गीता कहता है .... करता भाव तो अहंकार है , तूं करनें की सोच में न पड़ , जो तुम से होरहा है तूं उसका ------ द्रष्टा बन जा बस इतनी सी सोच तेरे को पहुँचा देगी वहाँ ---जो परमानन्द है । ===ॐ======