रस्सी तो जल गई , गांठे अभी बाकी हैं
आपनें यह मुहावरा तो सुना ही होगा लेकीन कभी इस पर सोचा भी है ? , यदि नहीं तो अब सोचते हैं । एक रस्सी लें और कुछ ढीली और कुछ मजबूत गांठे उस पर लगा दे । कुछ देर बाद उन गांठों को खोलें । जो गांठें ढीली रही होंगी उनकी जगह सीधी होगी और जहां मजबूत गांठें रही होंगी वह जगह कभी सीधी नहीं होंगी , गांठें खोलनें में भी कठिनाई आती है । ढीली और मजबूत गांठों वाली रस्सी को अब जला दें और जलती रस्सी को देखते रहें । धीरे - धीरे रस्सी जल जाती है , गांठें भी जल जाती हैं , ढीली गांठों का तो कोई पता नहीं होता लेकीन मजबूत गांठे वैसे की वैसी बनी रहती हैं । जली हुई मजबूत गांठें राख बन गयी होती हैं लेकीन उनका आकार - प्रकार पूर्ववत बना रहता है । गुणों की गांठें ढीली करनें का काम योग करता है और जब सभी गांठें ढीली हो कर खुल जाती हैं तब वह ब्यक्ति बैरागी हो जाता है । महाबीर इस बात को निर्ग्रन्थ होना कहते थे और गीता इस को योगी / सन्यासी / वैरागी कहता है । अब आप गीता के इन श्लोकों को देखें -----6.41 -6.42 , 9.20 - 9.22 को, जो कहते हैं ........ साधना में बैरागी बन कर भी लोग भोग में गिर जाते हैं और ऐसे लोग यातो कुछ दिन