गीता श्लोक - 8.6
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजेती अन्ते कलेवरम । तं तं एव एती कौन्तेय सदा तत भाव भावितः आखिरी श्वाश भरते समय तक का गहरा भाव जो जीवन का केंद्र रहा होता है , आत्मा को अपनी इच्छा के अनुकूल यथा उचित शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करता है ॥ The deep thaught which has been the centre of one,s life , compels the atman to search a body of its choice when the present body does not have energy to carry the atman further .. गीता यहाँ यह बता रहा है ------- मनुष्य का मन [ अर्थात विचार ] आत्मा को कैसे नचाता है जबकि ...... आत्मा देह में प्रभु है ॥ मनुष्य की सोच क्या है ? जो इस जीवन को ही नहीं अपितु अगले जीवन को भी अपनें बश में रखता है लेकीन ....... मन में कैसे विचार धारण करनें चाहिए और कैसे विचारों को नहीं धारण करना चाहिए , कौन सोचता है ? आज से ..... अभी से .... इसी घड़ी से ..... यदि हमें , अपनें वर्तान जीवन को आनंद से भरना है और ..... अगला जीवन कैसा हो की समझ जगानी हो तो ..... अपनें मन की हर पल की चाल को देखना पड़ेगा ॥ क्या आप तैयार हैं ? क्यों चारों ओर सन्नाटा छा गया , क्या ऐसा कोई नहीं चाहता ? ==== ॐ =