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गीता - यात्रा

गीता कहता है [ गीता - 13.31] वह जो ब्रह्माण्ड को एक के फैलाव रूप में देखता है ....... सत्य देखता है और ऐसा ब्यक्ति ..... ब्रह्म मय होता है ॥ ब्रह्म और प्रभु क्या हैं , इनका आपसी सम्बन्ध ? आदि शंकर ब्रह्म को परम कहते हैं और रामानुज एवं अन्य साकार उपासक ब्रह्म को भी प्रभु के अधीन समझते हैं आखिर यह द्वंद्व है क्या ? निराकार उपासक और साकार उपासक - एक साकार श्री राम या श्री कृष्ण के रूप में परम को देखते हैं और ऐसे, जो बुद्धि आधारित साधक हैं , साकार को नक्कारते हैं , वे निराकार की उपासना करते हैं । निराकार की उपासना अति कठीन उपासना है क्यों की मन - बुद्धि से परे को कैसे जाना जाए ? यह एक अवैज्ञानिक बात दिखती है क्यों की हमारी सीमा मन - बुद्धि तक सीमित है ॥ गीता में दोनों मार्ग हैं एक श्री राम श्री कृष्ण , हिमालय , गंगा , सागर से ले लार कुबेर , मगर आदि के लगभग सौ से भी अधिक उदाहरणों के माध्यम से साकार मार्ग पर चलनें की ओर इशारा मिलता है तो दूसरी ओर गीता यह भी कहता है की - ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है [ गीता - 12.3 - 12.4 ] गीता में ब्रह्म एक माध्यम है जिसमें प्रभु की शत प्रति