गीता - यात्रा
कमीज का गंदा कालर कभीं आप चमकाए हैं ? प्यारसे धीरे - धीरे डिटर्जेंट में कालर को भिगो - भिगो कर मसलना पड़ता है और कड़ी मेहनत के बाद कालर अपनें मूल रूप में आ पाता है । तन मन और बुद्धि को गीता भी कुछ इसी तरह निर्मल करता है , कैसे ? देखते हैं इस उदाहरण से ------- गीता सूत्र - 5.2 कहता है ....... कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों मुक्ति पथ हैं लेकीन ----- कर्म योग कर्म संन्यास से उत्तम है ॥ ज्यादा तर लोग गीता के एक - एक श्लोकों को पढ़ते हैं और उस पर प्रवचन करते हैं और ऐसा करनें में गीता का अपना परम सौंदर्य समाप्त सा हो जाता है क्योंकि ...... गीता कोई किताब नहीं , यह तो एक आयाम है - परम आयाम जिसका ---- कोई प्रारम्भ नहीं ..... जिसका कोई अंत नहीं .... और जो सनातन है ॥ जो लोग श्लोक - 5.2 का अर्थ लगायेंगे उनका सीधा सा यह अर्थ होगा की ---- कर्म योग और कर्म संन्यास दो अलग - अलग मार्ग हैं जो .... परम में पहुंचाते हैं लेकीन अब ज़रा सा इस को भी देखिये ---- सूत्र - 6.2 कह रहा है -------- कर्म योग और कर्म संन्यास दोनों एक के अलग - अलग नाम हैं जहां साधक संकल्प रहित स्थिति में परम में लींन रहता है ॥