गीता अमृत - 17
गीता श्लोक - 4.38 कहता है ------ योग की सिद्धि ज्ञान की जननी है । योग उसका नाम है जो परमात्मा मय बनाता है अर्थात जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्म मय दिखनें लगे , वह है योग । योग में योगी ब्रह्माण्ड की हर सूचना में आत्मा - परमात्मा देखता है और सब को आत्मा - परमात्मा के फैलाव रूप में देखता है । क्या है- ज्ञान ? देखिये गीता सूत्र - 13.1 - 13.3 तक सूत्रों से स्पष्ट है --- क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध - ज्ञान है । क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ क्या हैं ? मनुष्य का देह जो सविकार है वह है क्षेत्र और इस देह में निर्विकार जीवात्मा जो प्रभु का अंश है , वह है - क्षेत्रज्ञ अर्थात बिकार एवं निर्विकार का बोध - ज्ञान है । ग्यानी के लक्षण क्या हैं ? यहाँ देखिये गीता सूत्र - 13.7 - 13.11, 15.10 - 15.11 को जो कहते हैं ...... सम भाव वाला गुणों के तत्वों से अप्रभावित ब्यक्ति , ग्यानी होता है । अब आप गीता में गीता अमृत - 17 को समझनें के लिए गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें ------ 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4, 15.16, 13.19, 7.14, 15.1 - 15.3, 14.20, 13.22, 10.20, 15.7, 15.11, 15.15, 18.61, 2.55 - 2.